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फसल उत्पादन एवं प्रबंध - आठवीं विज्ञान

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खाद एवं उर्वरक मिलाना


पौधों को मिट्टी से आवश्यक खनिज प्राप्त होता है, जो कि पौधों के पोषण के लिए आवश्यक है। खेत में लगातार पौधे उगाने के कारण खेतों में आवश्यक खनिजों की कमी हो जाती है। आवश्यक खनिजों की कमी के कारण पौधों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है और फसल अच्छा नहीं होता है। इन आवश्यक खनिजों की पूर्ति के लिए खेतों में खाद तथा उर्वरक मिलाया जाता है।

Figure: Community-level composting in a rural area in Germany

Figure Reference: By Crystalclear - Own work, CC BY-SA 3.0, Link

कार्बनिक तथा आकार्बनिक

वैसे पदार्थ जो हमें प्राकृतिक रूप से या प्राकृतिक में मिलने वाले पदार्थों से प्राप्त होता है, कार्बनिक (ऑर्गेनिक) कहलाते हैं। तथा वैसे पदार्थ जिन्हें प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है अकार्बनिक (इनऑर्गेनिक) कहलाते हैं।

खाद

प्राकृतिक रूप से तैयार किया गया पदार्थ जो खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है, को प्राय: खाद कहा जाता है।

खाद एक प्राकृतिक पदार्थ है। खाद पौधों तथा जंतुओं के अपशिष्ट से प्राप्त होता है। पत्ते, सब्जियों के छिलके, गोबर आदि को गड्ढ़े में डालकर छोड़ देने पर धीरे धीरे सूक्ष्म जीवों द्वारा उनका अपघटन होता है। पूरी तरह अपघटित हो जाने पर पौधों तथा जंतुओं के ये अपशिष्ट खाद कहलाते हैं। इस खाद का उपयोग पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए होता है।

चूँकि खाद प्राकृतिक में मिलने वाले पदार्थों से प्राप्त होता है, अत: इन्हें कार्बनिक खाद कहा जाता है।

जैसे कम्पोस्ट या बर्मी कम्पोस्ट आदि प्राकृतिक रूप से तैयार किये गये उर्वरक हैं, अत: ये कार्बनिक उर्वरक कहलाते हैं तथा इन्हें साधारण बोलचाल की भाषा में खाद कहा जाता है।

उर्वरक

कृत्रिम रूप से प्रयोगशालाओं में तैयार किया गया पदार्थ जिसे खेतों की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिये उपयोग में लाया जाता है को प्राय: उर्वरक कहते हैं।

उर्वरक को कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है, अत: उर्वरक अकार्बनिक कहलाते हैं।

जैसे यूरिया, अमोनियम सल्फेट, सुपर फॉस्फेट, पोटाश, NKP (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाशियम) आदि प्रयोगशालाओं में कृत्रिम रूप से तैयार किये गये उर्वरक हैं। चूँकि इन्हें प्रयोगशालाओं में तैयार किया जाता है अत: ये अकार्बनिक उर्वरक हैं।

उर्वरक (अकार्बनिक खाद) के अधिक उपयोग से हानि

उर्वरक का उपयोग खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए की जाती है। परंतु कृत्रिम उर्वरक अर्थात अकार्बनिक खाद के अत्यधिक उपयोग से धीरे धीरे मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम जाती है। उर्वरक का अत्यधिक उपयोग से जल प्रदूषण भी बढ़ जाता है। बल्कि उर्वरकों का अधिक उपयोग आज जल प्रदूषण के मुख्य कारणों में से एक हो गया है।

अत: प्रयोगशालाओं में तैयार उर्वरकों की अपेक्षा खेतों में तैयार किये गये खाद का उपयोग करना अधिक उत्तम है।

उर्वरकता बढ़ाने के अन्य तरीके

(क) दो फसल के बीच खेत को खाली छोड़ना: लगातार फसल उगाये जाने से भी खेतों में आवश्यक खनिज पदार्थों की कमी हो जाती है। अत: दो फसलों के बीच खेत को खाली छोड़ देने से प्राकृतिक रूप से खेत की उर्वरा क्षमता बढ़ जाती है। अत: दो फसलों के बीच खेतों को खाली छोड़ना श्रेयस्कर है।

(ख) उर्वरक के बदले खाद का प्रयोग: उर्वरक (अकार्बनिक खाद) के बदले खाद (कार्बनिक खाद) का उपयोग मिट्टी के गठन तथा जल अवशोषण की क्षमता में बृद्धि करता है। खाद (कार्बनिक खाद) के उपयोग से मिट्टी में प्राय: सभी पोषकों की प्रतिपूर्ति हो जाती है।

(ग) फसल चक्रण: एक फसल के बाद दूसरी फसल का एकांतर क्रम में उगाया जाना फसल चक्रण कहलाता है।

फसल चक्रण से मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति हो जाती है। एक ऋतु में गेहूँ उगाये जाने के बाद दूसरी ऋतु में फलीदार चारा उगाने से मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्व नाइट्रोजन की पूर्ति हो जाता है। इससे नाइट्रोजन संबंधी अकार्बनिक उर्वरक खेतों में देने की आवश्यकता नहीं होती है। आजकल इस फसल चक्रण की पद्धति को अपनाने के लिए किसानों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है।

नाइट्रोजन स्थिरीकरण

मिट्टी में प्राकृतिक रूप से नाइट्रोजन का पुन: भरपाई नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहलाता है।

पौधों को अन्य पोषक तत्वों के साथ नाइट्रोजन की अधिक आवश्यकता होती है। हवा में नाइट्रोजन की काफी मात्रा होने के बाबजूद भी पौधे हवा से नाइट्रोजन को अवशोषित नहीं कर पाते हैं। बल्कि पौधे मिट्टी में वर्तमान घुलनशील नाइट्रोजन को जड़ों द्वारा अवशोषित करते हैं।

राइजोबियम अपना भोजन स्वयं नहीं बना पाता है। राइजोबियम हवा से नाइट्रोजन अवशोषित कर उन्हें घुलनशील रूप में मिट्टी में छोड़ देता है। पौधे इस घुलनशील नाइट्रोजन को जड़ों द्वारा अवशोषित कर लेते हैं।

नाइट्रोजन फलीदार फसल तथा दाल के फसल की जड़ों में राइजोबियम नामक बैक्टीरिया पाया जाता है। राइजोबियम फलीदार तथा दाल के फसलों को नाइट्रोजन प्रदान करता है बदले में ये फसल राइजोबियम नामक बैक्टीरिया को आवास एवं भोजन प्रदान करते हैं।

प्राकृतिक में दो जीवों के इस तरह के संबंध को सहजीवी संबंध कहते हैं, जिसमें जीव एक दूसरे की आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति करते हैं।

राइजोबियम नाम के बैक्टीरिया का फलीदार तथा दाल के फसलों के साथ रहकर मिट्टी में नाइट्रोजन के आवश्यक स्तर को बनाये रखने की प्रक्रिया को नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कहते हैं।

तथा फलीदार तथा दाल के पौधों को नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले पौधों के नाम से जाना जाता है।

फलीदार तथा दाल के फसलों को उगाये जाने के बाद दूसरे फसल को उगाने पर प्राय: उर्वरक या खाद देने की आवश्यकता नहीं होती है। फसल चक्रण का यह एक महत्वपूर्ण तरीका है।

खाद के लाभ

अकार्बनिक उर्वरक की अपेक्षा खेतों में तैयार किए गये कार्बनिक खाद अधिक अच्छी मानी जाती है। कार्बनिक खाद जिसे जैविक खाद भी कहा जाता है के कुछ लाभ निम्नांकित हैं:

(क) जैविक खाद से मिट्टी की जलधारण क्षमता में बृद्धि होती है।

(ख) जैविक खाद से मिट्टी भुरभुरी एवं संरन्ध्र हो जाती है। मिट्टी के भुरभुरी एवं संरन्ध्र होने से गैसों का विनिमय सरलता से होता है।

(ग) जैविक खाद से मिट्टी में मित्र जीवाणुओं की संख्या में बृद्धि होती है, जो फसल के लिए काफी लाभदायक है।

(घ) जैविक खाद से मिट्टी के गठन में सुधार आता है।

उर्वरक तथा खाद में अंतर

(क) उर्वरक का उत्पादन प्रयोगशालाओं में होता है। बड़े पैमाने पर उर्वरक का उत्पादन फैक्ट्रियों में किया जाता है।

जबकि खाद को खेतों में बनाया जाता है।

(ख) उर्वरक एक आकार्बनिक लवण है जिसे कृत्रिम रूप से बनाया जाता है।

जबकि खाद एक प्राकृतिक पदार्थ है जिसे गोबर, मानव अवशिष्ट तथा अन्य जैविक अवशिष्टों के विघटन से प्राप्त किया जाता है।

(ग) उर्वरक से मिट्टी में ह्युमस की बृद्धि नहीं होती है।

जबकि खाद से मिट्टी को ह्यूमस की प्राप्ति प्रचुर मात्रा में होती है।

(घ) उर्वरक में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व यथा नाइट्रोजन, फॉस्फोरस आदि प्रचूर मात्रा में होते हैं।

जबकि खाद में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व तुलनात्मक रूप से कम होते हैं।

(4) सिंचाई

समय समय आवश्यकता के अनुसार खेतों में जल [पानी (वाटर)] देने की प्रक्रिया सिंचाई कहलाती है। सिंचाई को अंग्रेजी में इरिगेशन (Irrigation) कहा जाता है।

सभी सजीव को जल की आवश्यकता होती है। चूँकि पौधे भी सजीव हैं अत: उन्हें भी जीवित रहने के लिए जल की आवश्यकता होती है।

पौधे आवश्यक खनिज पदार्थ मिट्टी से जड़ों के द्वारा ही अवशोषित करते हैं। बीजों के अंकुरण से लेकर पौधों में भोजन बनाने की प्रक्रिया से लेकर अन्य सभी प्रक्रियाओं के लिए जल की आवश्यकता होती है। मिट्टी में नमीं फसल की पाले तथा गर्म हवा से भी रक्षा करता है। चूँकि फसलों के पौधे प्राय: छोटे होते हैं जिसके कारण उनकी जड़ें भी जमीन के अंदर अधिक गहराई तक नहीं जाती है, जिससे वे जमीन की उपरी परतों से ही जल का अवशोषण कर पाते हैं, अत: अच्छे तथा स्वस्थ्य फसल के लिए सिंचाई आवश्यक है।

सिंचाई के श्रोत

बर्षा, नदी, झील, तालाब, नहर, कुएँ, नलकूप इत्यादि सिंचाई के श्रोत हैं। नदियाँ, झील आदि सिंचाई के प्राकृतिक तथा नहर, कुएँ, नलकूप इत्यादि सिंचाई के कृत्रिम श्रोत हैं।

सिंचाई के तरीके

सिंचाई के लिए नदी, झील, तालाब, नहर आदि से विभिन्न तरीकों से जल को खेतों तक पहुँचाया जाता है। वर्षा होने पर प्राकृतिक रूप से जल खेतों में पहुँच जाता है। कुछ फसल बर्षा ऋतु में होते हैं जबकि बहुत सारे फसल वैसी ऋतुओं में होते हैं जिनमें या तो बहुत ही कम बर्षा या बिल्कुल ही बर्षा नहीं होती है। ऐसी स्थिति में कृत्रिम रूप से जल को खेतों तक पहुँचाया जाता है।

जल को खेतों तक पहुँचाने में मनुष्य तथा मवेशी दोनों का उपयोग होता है।

सिंचाई के पारंपरिक तरीके

मोट (घिरनी), रहट, चेन पम्प, ढ़ेकली आदि सिंचाई के कुछ पारंपरिक तरीके हैं।

मोट (घिरनी) : कुँए से एक रस्सी तथा घिरनी की मदद से जल की निकासी कर खेतों में पहुँचाया जाता है। इस विधि को मोट (घिरनी) कहा जाता है।

चेन पम्प: चेन पम्प में एक बड़ी घिरनी पर रस्सी या चेन की सहायता से कुँए या झील आदि से जल की निकासी की जाती है। चेन पम्प को मनुष्य या मवेशी या दोनों की मदद से चलाया जाता है।

रहट: रहट प्राय: मवेशी यथा बैल या भैंस या अन्य मवेशी की मदद से चलाया जाता है। रहट का उपयोग कर कुँए या बड़े गड्ढ़े से जल की निकासी कर खेतों तक पहुँचाया जाता है।

ढ़ेकली: ढ़ेकली की मदद से छोटे गड्ढ़ों, नदियों या तालाब से जल की निकासी की जाती है तथा छोटी छोटी नालियों द्वारा खेतों तक पहुँचाया जाता है। ढ़ेकली को मनुष्य द्वारा चलाया जाता है। ढ़ेकली को बहुत सारे क्षेत्र में किरान भी कहा जाता है।

Figure : Irrigation in Tamil Nadu, India

Figure Reference: By Seratobikiba - Own work, CC BY-SA 4.0, Link

सिंचाई के आधुनिक तरीके

पारंपरिक तरीके से सिंचाई में अधिक समय तथा मेहनत की आवश्यकता होती है, इसके बाबजूद भी इन पारंपरिक तरीकों से कम भूमि की ही सिंचाई संभव हो पाती है। इसी कारण से सिंचाई के आधुनिक तरीके अपनाये जाते हैं। सिंचाई के आधुनिक तरीकों में मशीन का उपयोग होता है। मशीन के उपयोग से सिंचाई में समय, मेहनत तथा लागत तीनों की बचत होती है।

मोटर पम्प, छिड़काव तंत्र, ड्रिप तंत्र आदि का उपयोग सिंचाई के आधुनिक तरीकों में आता है।

मोटर पम्प: मोटर पम्प को प्राय: कुँए, नलकूप आदि में स्थापित किया जाता है। मोटर पम्प को बिजली या डीजल ईंजन से चलाया जाता है। मोटर पम्प की मदद से कम समय, मेहनत तथा लागत में अधिक भूमि की सिंचाई की जाती है।

छिड़काव तंत्र: छिड़काव तंत्र को अंग्रेजी में स्प्रिंकल सिस्टम (Sprinkler System) कहा जाता है।

छिड़काव तंत्र में मोटर पम्प तथा पाइप की मदद से जल को खेतों तक पहुँचाया जाता है। इस छिड़काव तंत्र की विधि में जल की बचत के साथ साथ अधिक दूरी तक जल को पहुँचाया जाता है। छिड़काव तंत्र का उपयोग प्राय: असमतल तथा बलूही भूमि में सिंचाई के लिए किया जाता है जहाँ नालियों की मदद से जल को पहुँचाना संभव नहीं होता है।

इस विधि में उर्ध्व पाइपों में नोजल लगे होते हैं। ये उर्ध्व पाइप एक मुख्य पाईप से जुड़े होते हैं जिसमें मोटर पम्प की सहायता से जल को भेजा जाता है। जल को पाइपों में भेजने पर उनमें लगे नोजल घूमते हुए बर्षा की तरह जल का छिड़काव करता है।

ड्रिप तंत्र : ड्रिप तंत्र को अंग्रेजी में ड्रिप सिस्टम (Drip System) कहा जाता है। ड्रिप तंत्र में जल को मोटर पम्प की मदद से पाइपों में भेजा जाता है। इस ड्रिप तंत्र की विधि में जल बूँद बूँद कर पौधों पर गिरता है। फलदार पौधे, बगीचे आदि के लिए ड्रिप तंत्र से सिंचाई किया जाना अत्यंत ही उपयोगी है। इस ड्रिप तंत्र से सिंचाई में जल की बर्बादी बिल्कुल नहीं होती है।




Reference: