संसाधन एवं विकास : भूगोल क्लास दसवां (समाजिक विज्ञान)


भारत में भू-उपयोग प्रारूप

भौतिक कारक जैसे भू–आकृति, जलवायु और मृदा (मिट्टी) के प्रकार तथा मानवीय कारक जैसे जनसंख्या घनत्व, तकनीकि क्षमता, सांस्कृतिक परम्पराएँ आदि भू उपयोग को निर्धारित करते हैं।

क्लास दशम समाज विज्ञान संसाधन एवं विकास – पट्टीदार कृषि

भारत में भू–उपयोग के आँकड़ें निम्नांकित हैं:

(a) भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.8 लाख वर्ग किलो मीटर है। परंतु पूर्वोत्तर राज्यों में असम को छोड़कर अन्य राज्यों के सूचित क्षेत्र के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसके साथ ही जम्मू कश्मीर मंर पाकिस्तान और चीन अधिकृत क्षेत्रों के भूमि के उपयोग का सर्वेक्षण नहीं हुआ है। अत: 93 प्रतिशत भाग के ही भू–उपयोग के ही आँकड़े उपलब्ध हैं।

(b) भारत में दिनों दिन स्थायी चरागाहों के अंतर्गत आने वाली भूमि का क्षेत्र कम हुआ है।

(c) भारत में वर्तमान परती के अतिरिक्त अन्य परती भूमि उपजाऊ नहीं है। इन भूमि पर खेती हो सकती है, लेकिन अत्यधिक लागत होने के कारण इन्हें दो या तीन वर्षों में एक या दो बार ही बोया जाता है। यदि इन्हें बोये जाने वाले क्षेत्रों में शामिल कर लिया जाय तो भी कुल सूचित क्षेत्र के 54 प्रतिशत क्षेत्र पर ही खेती हो सकती है।

(d) भारत में शुद्ध (निवल) बोये क्षेत्र का प्रतिशत विभिन्न राज्यों में भिन्न भिन्न है। एक ओर जहाँ पंजाब तथा हरियाणा में 80 प्रतिशत भूमि पर खेती होती हैं वहीं अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 10 प्रतिशत से भी कम भाग पर खेती होती है।

(e) भारत में राष्ट्रीय वन नीति (1952) द्वारा निर्धारित मापदंड के अनुसार वनों के अंतर्गत 33 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वांछित है। परंतु इसकी तुलना में वर्तमान में भारत में वन के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र का प्रतिशत काफी कम है।

वन का पर्याप्त क्षेत्रफल पारिस्थिति संतुलन (इकोलॉजिकल बैलेंस) बनाये रखने के लिए आवश्यक है। इसके साथ वन पर लाखों लोगों की जीविका निर्भर करती है। अत: वन के वर्तमान क्षेत्रफल को बढ़ाया जाना आवश्यक है।

भूमि निम्नीकरण और संरक्षण उपाय

भूमि निम्नीकरण क्या है?

भूमि निम्नीकरण का अर्थ है भूमि के गुणों का ह्रास होना।

भूमि संरक्षण और प्रबंधन की अवहेलना करने एवं लगातार भू–उपयोग के कारण भू–संसाधनों के गुणों का ह्रास होने लगता है, अर्थात भूमि का निम्नीकरण होने लगता है। भू–संसाधनों अर्थात भूमि के निम्नीकरण से समाज और पर्यावरण पर गंभीर आपदा आ सकती है।

निम्नीकृत भूमि का क्षेत्रफल

भारत में वर्तमान में लगभग 13 करोड़ हेक्टेयर भूमि निम्नीकृत है। इसमें निम्नीकृत वनों के अंतर्गत आने वाली भूमि का प्रतिशत लगभग 28 है तथा जल अपरदित भूमि का क्षेत्रफल लगभग 56 प्रतिशत है। शेष निम्नीकृत भूमि का क्षेत्र लवणीय एवं क्षारीय है।

क्लास दशम समाज विज्ञान संसाधन एवं विकास – भूमि का अपरदन

भूमि निम्नीकरण के कारण

(a) भूमि के उपयोग में भूमि संरक्षण और प्रबंधन की अवहेलना किया जाना।

(b) विभिन्न प्रयोजनों हेतु वनों का उन्मूलन।

जैसे खनन के कारण झारखंड, छ्त्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों में वनोन्मूलन भूमि निम्नीकरण का कारण बना है।

(c) अति पशुचारण के कारण।

गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आदि राज्यों में अति पशुचारण भूमि के निम्नीकरण का मुख्य कारण है।

(d) खनन की प्रक्रिया के कारण।

जैसे कि खनन के उपरांत खादानों को गहरी खाईयों और मलबे के साथ खुला छोड़ देना।

(e) अति सिंचाई के कारण।

जैसे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक सिंचाई भूमि निम्नीकरण का मुख्य कारण है।

अति सिंचन से उत्पन्न जलाक्रांतता भी भूमि के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है। अति सिंचन से मृदा में लवण तथा क्षार की मात्रा बढ़ने लगती है, जिससे भूमि का निम्नीकरण होने लगता है।

(f) खनिज प्रक्रियाओं के कारण।

जैसे सीमेंट उद्योग में चूना पत्थर को पीसना और मृदा बर्तन के उद्योग में चूने और सेलखड़ी के प्रयोग से बहुत अधिक मात्रा में वायुमंडल में धूल विसर्जित हो जाती है जिससे मिट्टी की जल सोखने की प्रक्रिया अवरूद्ध हो जाती है।

(g) विभिन्न उद्योगों में फैक्ट्रियों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों के कारण

फैक्ट्रियों तथा शहरों से जल निकास से बाहर आने वाले अपशिष्ट पदार्थों के कारण भूमि तथा जल प्रदूषित हो जाता है।

भूमि निम्नीकरण के संरक्षण के उपाय

भूमि के निम्नीकरण को निम्नलिखित तरीकों से कम किया जा सकता है, बल्कि रोका भी जा सकता है:

(a) वनारोपण करके।

(b) चरागाहों के उचित प्रबंधन तथा पशुचारण नियंत्रण से।

(c) पेड़ों की रक्षक मेखला बना कर मिट्टी का वायु तथा जल से अपरदन रोका जा सकता है।

(d) रेतीले टीलों को काँटेदार झाड़ियाँ लगाकर स्थिर बनाकर।

(e) बंजर भूमि के उचित प्रबंधन से।

(f) खनन नियंत्रण से।

(g) औद्योगिक जल को परिष्करण के पश्चात ही विसर्जित कर जल तथ भूमि के प्रदूषण को कम कर।

मृदा (मिट्टी) संसाधन

मृदा एक अति महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। मृदा एक नवीकरण योग्य संसाधन भी है। मृदा ही पौधों के विकास का माध्यम है तथा पौधे विभिन्न प्रकार के जीवों का भी पोषण करते हैं। कुल मिलाकर मृदा एक जीवन तंत्र है।

मृदा जैव (ह्यूमस) तथा अजैव दोनों प्रकार के पदार्थों से बनती है।

मृदा बनने के कारण एवं घटक

मृदा के कुछ ही सेंटीमीटर तक की गहराई के निर्माण में भी लाखों वर्ष लग जाते हैं। मृदा के बनने में निम्नांकित घटक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:

(a) उच्चावच (भूमि पर ऊँचाई और गहराई वाले क्षेत्रों का पैटर्न), जनक शैल अथवा संस्तर शैल, जलवायु, वनस्पति और अन्य जैव पदार्थ और समय मृदा बनने की प्रक्रिया के मुख्य कारक हैं।

(b) तापमान परिवर्तन, बहने वाले जल की क्रिया, पवन, हिमनदी और अपघटन की क्रियाएँ आदि भी मृदा बनने की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण कारण हैं।

(c) मृदा में होने वाले रासायनिक और जैविक परिवर्तन भी मृदा बनने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

मृदा का वर्गीकरण

मृदा के रंग, गहराई, गठन, आयु, रासायनिक एवं भौतिक गुण तथा मृदा बनने की प्रक्रियाओं को निर्धारित करने वाले तत्वों के आधार पर मृदा को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

चूँकि भारत में अनेक प्रकार की उच्चावच, भू आकृतियाँ, जलवायु और वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, अत: यहाँ अनेक प्रकार की मिट्टी (मृदा) विकसित हुई हैं।

भारत में निम्नांकित प्रकार की मिट्टी (मृदा) पायी जाती हैं:

(a) जलोढ़ मिट्टी (मृदा)

(b) काली मिट्टी (मृदा)

(c) लाल और पीली मिट्टी (मृदा)

(d) लेटराइट मिट्टी (मृदा)

(e) मरूस्थली मिट्टी (मृदा)

(f) वन मिट्टी (मृदा)

(a) जलोढ़ मिट्टी (मृदा)

जल के द्वारा बहाकर लायी गयी मिट्टी (मृदा), जलोढ़ मिट्टी (मृदा) कहलाती है।

चूँकि जलोढ़ मिट्टी (मृदा), जैसा कि नाम से स्पष्ट है, बड़े नदियों के बहाव वाले भागों में पाई जाती है।

उत्तरी भारत के मैदानी भाग तीन मुख्य नदी तंत्रों सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा बहाकर लाये गये मिट्टी (मृदा) से बनी हैं। यह भाग एक सँकरे गलियारे द्वारा पश्चिमी भारत के राजस्थान और गुजरात तक फैली हुई हैं।

इसके साथ ही भारत के पूर्वी तटीय मैदान में महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों से निर्मित डेल्टा भी जलोढ़ मिट्टी से बने हैं।

जलोढ़ मिट्ट में रेत, सिल्ट और मृतिका के विभिन्न अनुपात पाये जाते हैं।

नदी के मुहाने से ऊपरी भाग (नदी घाटी के ऊपरी भाग) की ओर बढ़ने पर मृदा के कणों का आकार बढ़ता चला जाता है। इसका यह अर्थ है कि नदी के मुहाने से घाटी वाले ऊपरी भाग के पास वाले क्षेत्रों में मोटे कण वाली मिट्टी पायी जाती है। मोटे कण वाली मिट्टी आमतौर पर मैदानों के द्वार, 'चो' क्षेत्र और तराई में पायी जाती है।

मृदा (मिट्टी) की पहचान उसके आयु के अनुसार भी होती है। आयु के आधार पर जलोढ़ मिट्टी को दो भागों में बाँटा जा सकता है:

(क) पुराना जलोढ़ मिट्टी (बांगर मिट्टी)

(ख) नया जलोढ़ मिट्टी (खादर मिट्टी)

(क) पुराना जलोढ़ मिट्टी (बांगर मिट्टी)

वैसी जलोढ़ मिट्टी जिसमें कंकड़ों की संख्या अधिक होती है, पुराना जलोढ़ या बांगर मिट्टी कहा जाता है।

(ख) नया जलोढ़ मिट्टी (खादर मिट्टी)

वैसी मिट्टी जिसमें बांगर मिट्टी की तुलना में महीन कण पाये जाते हैं, खादर मिट्टी या नया जलोढ़ मिट्टी कहा जाता है।

जलोढ़ मिट्टी के गुण

जलोढ़ मिट्टी काफी उपजाऊ होती है। जलोढ़ मिट्टी में पोटाश, फास्फोरस और चूना की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है।

जलोढ़ मिट्टी गन्ने, चावल, गेहूँ, दलहन, तथा अन्य अनाजों की फसलों की खेती के लिए अधिक उपयुक्त होती है।

जलोढ़ मिट्टी वाले क्षेत्रों के अधिक उपजाऊ होने के कारण इसमें जनसंख्या का घनत्व अधिक पाया जाता है। सभ्यता जलोढ मिट्टी वाले क्षेत्रों में ही सबसे पहले विकसित होना शुरू हुआ था। यही कारण है कि प्राचीन सभ्यताओं को नदी घाटी सभ्यता के नाम से जाना जाता था।