संसाधन एवं विकास : भूगोल क्लास दसवां (समाजिक विज्ञान)
मृदा (मिट्टी) संसाधन भाग-2
(b) काली मिट्टी (मृदा)
मिट्टी (मृदा) जिनका रंग काला होता है, काली मिट्टी (मृदा) कहा जाता है। काली मिट्टी (मृदा) को रेगर मिट्टी (मृदा) भी कहा जाता है।
काली मिट्टी (मृदा) के बनने में जलवायु और जनक शैलों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
काली मिट्टी (मृदा) दक्कन पठार क्षेत्र के उत्तर पश्चिमी भागों में पायी जाती है। यह मिट्टी लावा जनक शैलों से बनी हैं। भारत में महाराष्ट्र, सौराष्ट्र मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठार पर काली मिट्टी पयी जाती हैं तथा दक्षिण पूर्वी दिशा में गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटियों तक फैली हैं।
काली मिट्टी (मृदा) के गुण तथा उपयोग
काली मिट्टी (मृदा) बहुत महीन कणों से बनी होती हैं। महीन कणों से बनी होने के कारण काली मिट्टी (मृदा) में नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक होती है।
काली मिट्टी (मृदा) में कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूने जैसे तत्वों की मात्रा पर्याप्त रूप से होती है। लेकिन काली मिट्टी में फास्फोरस की मात्रा कम होती है।
गर्म तथा शुष्क मौसम में काली मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं जिसके कारण इस तरह की मिट्टी में वायु की पर्याप्त मात्रा मिश्रित हो जाती है।
काली मिट्टी (मृदा) कपास की खेती के लिए अत्यधिक उपयुक्त मानी जाती है। यही कारण है कि काली मिट्टी को काली कपास मिट्टी (मृदा) के नाम से भी जाना जाता है।
(c) लाल और पीली मिट्टी (मृदा)
भारत में दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्षा वाले भागों में पायी जाने वाली मिट्टी को लाल और पीली मिट्टी (मृदा) के नाम से जाना जाता है।
चूँकि इस तरह की मिट्टी का रंग लाल होता है तथा जलयोजन के कारण इसका रंग पीला भी होता है, अत: इसे लाल और पीली मिट्टी (मृदा) के नाम से जाना जाता है।
इस प्रकार की मिट्टी में रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों लौह धातु के प्रसार के कारण रंग लाल होता है।
लाल और पीली मिट्टी (मृदा) भारत में ओड़िसा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट में पहाड़ी वाले भागों में पायी जाती है।
(d) लेटराइट मिट्टी (मृदा)
लेटराइट मिट्टी (मृदा) ईंट के समान लाली लिए रंग का होता है। इसका नाम ग्रीक के शब्द 'लैटर (Later)' से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है 'ईंट'।
लेटराइट मिट्टी (मृदा) उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले भागों में विकसित होती है। लेटराइट मिट्टी (मृदा) में ह्यूमस की मात्रा काफी कम होती है क्योंकि इसके अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में विकसित होने के कारण इसके जैविक पदार्थों को अपघटित करने वाले बैक्टीरिया नष्ट हो जाता हैं।
लेटराइट मिट्टी (मृदा) भारत में मुख्य रूप से कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उड़िसा तथा असम के पहाड़ी क्षेत्रो में पायी जाती है।
तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश और केरल में लाल लेटराइट मिट्टी (मृदा) काजू की फसल के लिए अधिक उपयोगी हैं।
(e) मरूस्थली मिट्टी (मृदा)
मरूस्थल वाले भागों पायी जाने वाली मिट्टी को मरूस्थलीय मिट्टी (मृदा) कहा जाता है।
मरूस्थलीय मिट्टी (मृदा) लाल तथा भूरे रंग का होता है। मरूस्थलीय मिट्टी (मृदा) के मरूस्थलीय भाग में पाये जाने के कारण यह रेतीला और लवणीय होता है।
मरूस्थलों का वातावरण शुष्क तथा उच्च तापमान का होने के कारण इसमें पाये जाने वाली मिट्टी में ह्यूमस और नमी की मात्रा काफी कम होती है।
मरूस्थलीय मिट्टी के सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा बढ़ती चली जाती है और नीचे के परतों में चूने के कंकर की सतह पायी जाती है जिससे जल का अंत: स्यंदन (Infiltration) अवरूद्ध हो जाता है।
भारत में राजस्थान में तथा गुजरात के कुछ भागों में मरूस्थलीय मिट्टी पायी जाती है।
(f) वन मिट्टी (मृदा)
पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों, जहाँ पर्याप्त वर्षा होती है तथा वर्षा वन उपलब्ध हैं, में पायी जाने वाली मिट्टी को वन मिट्टी (मृदा) कहा जाता है।
नदी घाटियों में पायी जाने वाली वन मिट्टी (मृदा) दोमट और सिल्टदार होती है लेकिन उपरी ढ़ालों पर पायी जाने वाली वन मिट्टी (मृदा) मोटे कणों वाली होती है।
हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों पायी जाने वाली वन मिट्टी (मृदा) का बहुत अधिक अपरदन होने के कारण ये अधिक अम्लीय होते हैं तथा इसमें ह्यूमस की मात्रा काफी कम होती है।
नदी घाटी के निचले क्षेत्रों, विशेषकर नदी सोपानों और जलोढ़ पंखों में पायी जाने वाली वन मिट्टी (मृदा) काफी उपजाऊ होती है।
मृदा अपरदन और संरक्षण
मृदा अपरदन
मिट्टी (मृदा) के कटाव और बहाव की प्रक्रिया मृदा अपरदन कहलाती है। प्राकृतिक तत्व जैसे पवन, हिमनदी, और जल मृदा का अपरदन करते हैं।
मृदा के अपरदन और विकास की प्रक्रिया प्राकृतिक रूप से साथ साथ ही चलती रहती है तथा उसमें संतुलन बना रहता है। परंतु मानवीय क्रिया कलापों के कारण मृदा के अपरदन की दर बढ़ गयी है। वनोन्मूलन, अति पशुचारण, निर्माण, तथा खनन आदि कई ऐसी मानवीय क्रियाएँ हैं जिससे मृदा अपरदन की दर बढ़ जाती है।
मृदा अपरदन का वर्गीकरण तथा भूमि
(a) उत्खात भूमि
कुछ भूमि पर बहता हुआ जल मृत्तिकायुक्त मिट्टी को काटते हुए गहरी वाहिकाएँ बनाता है। ये वाहिकाएँ अवनलिकाएँ कहलाती हैं। जल मिट्टी को काटकर अवनलिकाएँ बनाता है तथा इसमें बहते हुए मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बहा ले जाता है।
ऐसी भूमि जिसमें अवनलिकाओं के द्वारा मिट्टी बह जाती है और भूमि जोतने योग्य नहीं रह जाती है, को उत्खात भूमि (bad land) कहा जाता है।
(b) खड्ड भूमि (रेवाइन लैंड)
चम्बल बेसिन में उत्खात भूमि को खड्ड भूमि (रेवाइन लैंड) कहा जाता है।
(c) चादर अपरदन (शीट इरोजन)
जब जल विस्तृत क्षेत्र को ढ़के हुए ढ़ाल के नीचे से बहने लगता है, तो क्षेत्र की उपरी मिट्टी घुलकर जल के साथ बह जाती है, इसे चादर अपरदन (शीट इरोजन) कहा जाता है।
(d) पवन अपरदन (विंड इरोजन)
जब हवाओं द्वारा मैदान अथवा ढ़ाल वाले क्षेत्र की मिट्टी को उड़ा ले जाता है, तो इसे पवन अपरदन (विंड इरोजन) कहा जाता है। ऐसा प्राय: शुष्क क्षेत्रों में होता है। मरूस्थलीय भूमि में पवन अपरदन की क्रिया अधिक होती है।
(e) गलत जुताई के कारण अपरदन
कृषि के गलत तरीके भी मिट्टी के अपरदन के लिए जिम्मेवार हैं, इसमें गलत तरीके से हल चलाने की प्रक्रिया भी शामिल है।
जब ढ़ाल वाली भूमि पर ऊपर से नीचे की ओर हल चलाया जाता है, तो वाहिकाएँ बन जाती है। इससे अंदर से बहता हुआ जल मिट्टी को बहा कर ले जाता है।
मृदा का अपरदन से संरक्षण
मृदा को अपरदन से निम्नांकित तरीकों से बचाया जा सकता है:
(a) सही तरीके के कृषि की प्रक्रियाओं को अपनाकर
(i) जुताई की सही प्रक्रिया अपनाकर
जुताई के क्रम में ढ़ाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समांनांतर हल चलाने से ढ़ाल के साथ मिट्टी के बहाव को रोका जा सकता है। इस तरह की जुताई को समोच्च जुताई (contour ploughing) कहा जाता है।
(ii) ढ़ाल वाली भूमि पर सीढ़ी बनाकर
ढ़ाल वाली भूमि पर सोपान अथवा सीढ़ी बनाकर कृषि कार्य करने से जल के बहाव के साथ मिट्टी के अपरदन को रोका जा सकता है।
(iii) पवन द्वारा जनित बल को कमजोर कर
भूमि के बड़े भाग को टुकड़ों में बाँटकर उनके बीच में घास की पट्टियाँ उगाई जा सकती है। ये घास की पट्टियाँ हवा द्वारा उत्पन्न बल को कमजोर करती हैं, जिससे हवा द्वारा मिट्टी को उड़ा ले जाने की प्रक्रिया को कम कर मिट्टी के अपरदन को रोका जा सकता है।
इस तरीके को पट्टी कृषि (स्ट्रिप फार्मिंग) कहा जाता है।
खेतों में पेड़ों को कतारों में लगाकर भी पवन की गति को कम कर अपरदन को रोका जा सकता है। ऐसे पेड़ों के कतार को रक्षक मेखला (शेल्टर बेल्ट) कहा जाता है।
पेड़ों की कतारों से रक्षक मेखला (शेल्टर बेल्ट) बना कर पश्चिम भारत के मरूस्थलीय भूमि के स्थायीकरण में अर्थात अपरदन को रोकने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
(b) भूमि पर पेड़ अर्थात वनरोपन कर
भूमि पर पेड़ों की संख्या को बढ़ाने से अपरदनकारी बल जैसे पवन तथा जल के बहाव द्वारा जनित बल को कमजोर कर अपरदन को रोका जा सकता है।