वन एवं वन्य जीव संसाधन : भूगोल क्लास दसवां (समाजिक विज्ञान)
गरीबी पर्यावरणीय निम्नीकरण का सीधा परिणाम
भारत जैसे विकासशील देशों में गरीबी पर्यावरण के निम्नीकरण का सीधा परिणाम होता है। कई मूल जातियाँ और वनों पर निर्भर रहने वाले समुदाय, वनों के विनाश के कारण अधिक निर्धन होते जा रहे हैं, तथा हाशिये पर हैं।
ये समुदाय खाने, पीने, औषधि, संस्कृति अध्यात्म आदि के लिए वनों पर निर्भर होते हैं। वनों के विनाश के कारण इन वनों पर निर्भर रहने वाले समुदायों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इन समुदायों में खाना, चारा, जल तथा अन्य कई आवश्यक सामग्रियों को इकट्ठा करने की जिम्मेवारी महिलाओं पर होती है। कई कई बार केवल पीने के लिए पानी के लिए उन्हें दस दस किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है। अत: विशेषकर महिलाओं की स्थिति अधिक चिंतनीय है।
वन की कटाई परोक्ष रूप से सूखा, बाढ़ तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं के रूप में परिलक्षित होता है, जिससे गरीबों का जीवन अधिक प्रभावित होता है।
भारत में वन और वन्य जीवन का संरक्षण : भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972
भारत जैसे देशों में वन और वन्य जीवन मानव के लिए काफी कल्याणकारी है, अत: वनों और वन्य जीवन के संरक्षण अत्यावश्यक है।
वनों और वन जीवन के संरक्षण से पारिस्थितिकी विविधतता बनी रहती है और हमारे जीवन के लिए आवश्यक संसाधन यथा जल, वायु और मृदा बने रहते हैं। वनों और वन जीवन का संरक्षण विभिन्न जातियों में बेहतर जनन के लिए वनस्पति और पशुओं में जींस विविधता को भी संरक्षित करती है।
भारत में भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972 में लागू किया गया।
भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972 के मुख्य बिंदु
भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972 में किये गये प्रावधानों के मुख्य बिंदु निम्नांकित हैं:
(1) वन्य जीवों के आवास का रक्षण
(2) सारे भारत में रक्षित जातियों की सूची का प्रकाशन
(3) बची हुयी संकटग्रस्त जातियों के बचाव पर जोर
(4) वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबंध
(5) वन्य जीवों के आवासों का कानूनी रक्षण
(6) जंगली जीवों के व्यापार पर रोक
संदर्भ: By Stella Vješnica - Own work, CC BY-SA 3.0, Link
इस भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972 के लागू होने के पश्चात सरकार ने कई राष्ट्रीय उद्यान और वन्य जीव पशुविहार स्थापित किये। इन सभी परियोजनाओं का मुख्य लक्ष्य गंभीर खतरे में पड़े विशेष प्राणियों का रक्षा करना है। इन प्राणियों में मुख्य रूप से बाघ, एक सींग वाला गैंडा, कश्मीरी हिरण अथवा हंगुल (Hangul), एशियाई शेर, तीन प्रकार के मगरमच्छ – स्वच्छ जल मगरमच्छ, लवणीय जल मगरमच्छ और घड़ियाल, आदि शामिल हैं। इसके अलावे भारतीय हाथी, काला हिरण, चिंकारा, भारतीय गोडावन और हिम तेंदुआ, आदि का शिकार भी पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है।
वन्य जीवन अधिनियम 1980 और 1986 के तहत कई तितलियों, पतंगों, भृगों और एक ड्रैगन फ्लाई को भी संरक्षित जातियों में शामिल किया गया है।
वर्ष 1991 में पौधों की भी 6 जातियों को संरक्षित किये जाने वाली सूची में शामिल किया गया है।
वन और वन्य जीव संसाधनों के प्रकार और वितरण
भारत में वन और वन्य जीवन को निम्नांकित वर्गों में विभाजित किया गया है:
(i) आरक्षित वन
(ii) रक्षित वन और
(iii) अवर्गीकृत वन
(i) आरक्षित वन
वैसे वन क्षेत्र जिनका रख रखाव इमारती लकड़ी, अन्य वन पदार्थों और उनके बचाव के लिए किया जाता है, को आरक्षित वन क्षेत्र के अंतर्गत रखा गया है। ये वन स्थायी वन हैं। मध्य प्रदेश में स्थायी वनों के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्र हैं जो कि पूरे वन क्षेत्र का 75 प्रतिशत है।
आरक्षित वन सर्वाधिक मूल्यवान वन हैं।
(ii) रक्षित वन
रक्षित वन भी वैसे वन हैं जिनका उपयोग इमारती लकड़ी तथा अन्य उपयोग के किया जाता है। पूरे देश में कुल वन का लगभग एक तिहाई हिस्सा रक्षित वनों की श्रेणी में आता है। इस वनों को अधिक नष्ट होने से बचाव के लिए ही इन्हें रक्षित वनों की श्रेणी में रखा गया है।
मध्य प्रदेश के अलावे बिहार, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, ओड़िशा और राजस्थान में भी रक्षित वनों का एक बड़ा भाग अवस्थित है।
(iii) अवर्गीकृत वन
आरक्षित और रक्षित वनों के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के वन और बंजरभूमि जो सरकार, व्यक्तियों और समुदायों के स्वामित्व में होते हैं, को अवर्गीकृत वन कहा जाता है।
अवर्गीकृत वन पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में और गुजरात में हैं।
चिपको आंदोलन
संदर्भ: By NA - https://www.indiatimes.com/news/india/chipko-andolan-was-the-strongest-movement-to-conserve-forests-india-needs-it-again-342183.html, CC BY-SA 4.0, Link
समुदाय और वन संरक्षण
भारत में समुदायों का वन संरक्षण में हमेशा से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत में कई पेड़ों को भगवान मानकर उनकी पूजा की जाती है, जैसे कि पीपल, बरगद, महुआ, आम, ईमली, केला, आदि के पेड़। परम्परागत रूप से चली आ रही पेड़ों की पूजा वास्तव में सामुदायिक स्तर पर वनों को संरक्षण प्रदान करना ही है।
अब कई क्षेत्रों में सरकार भी समुदाय के साथ मिलकर वनों के संरक्षण हेतु कार्य करना शुरू किया है। जैसे कि
(1) सरिस्का बाघ रिजर्व में राजस्थान के गाँवों के लोग स्वयं वन्य जीव आवासों की रक्षा कर रहे हैं और सरकार की ओर से हस्तक्षेप भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। राजस्थान के अलवर जिले में 5 गाँवों के लोगों ने तो 1200 हेक्टेयर वन भूमि को "भैरोंदेव डाकव सेंच्यूरी" घोषित कर दी है। इस सेंच्यूरी के अपने ही नियम कानून हैं जो शिकार को वर्जित करते हैं तथा बाहरी लोगों की घुसपैठ रोककर वन्य जीवों को बचाते है।
(2) हिमालय का प्रसिद्ध "चिपको आंदोलन" कई क्षेत्रों में वनों की कटाई रोकने में कामयाब रहा तथा यह भी उदाहरण प्रस्तुत किया कि स्थानीय पौधों की जातियों को प्रयोग करके सामुदायिक वनीकरण अभियान को सफल बनाया जा सकता है।
(3) टिहरी में किसानों का "बीज बचाओ आंदोलन और नवदायन" ने दिखाया कि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के बिना भी विविध फसल उत्पादन द्वारा आर्थिक रूप से व्यवहार्य कृषि उत्पादन संभव है।
(4) सरकार ने "संयुक्त वन प्रबंधन" नाम से एक कार्यक्रम चलाया है जिसका उद्देश्य समुदायों के साथ मिलकर क्षरित वनों के बचाव के लिए कार्य करना है। इस कार्यक्रम की औपचारिक शुरूआत सर्वप्रथम उड़ीसा राज्य में वर्ष 1988 में की गयी थी।
इस कार्यक्रम के अंतर्गत गाँव के स्तर पर संस्थाएँ बनायी जाती हैं जिसमें ग्रामीण और वन विभाग के अधिकारी संयुक्त रूप से कार्य करते हैं। इसके बदले ये समुदाय मध्य स्तरीय लाभ जैसे गैर इमारती वन उत्पादों के हकदारी होते हैं और सफल संरक्षण से प्राप्त इमारती लकड़ी लाभ में भी भागीदार होते हैं।
गौतम बुद्ध ने कहा है "पेड़ एक विशेष असीमित दयालु और उदारतापूर्ण जीवधारी हैं जो अपने सत पोषण के लिए कोई माँग नहीं करता है और दानशीलतापूर्वक अपने जीवन की क्रियाओं को भेंट करता है। यह सभी की रक्षा करता है और स्वयं पर कुल्हाड़ी चलाने वालो विनाशक को भी छाया प्रदान करता है।"