तंतु क्या है? वस्त्र क्या है?
पोशाक वस्त्र से से बनते हैं। वस्त्र धागे से बनता है, तथा धागा तंतु से बनता है। वस्त्र को कपड़ा या पोशाक भी कहा जाता है। वस्त्र का उपयोग पोशाक बनाने के साथ साथ बेड शीट, बैग, डोर मैट, कंबल, स्वेटर, मफलर, बोरा, गनी बैग, आदि तथा कई अनगिनत वस्तुएँ बनाने में किया जाता है।
वस्त्रों में विविधता
वस्त्र (कपड़े) कई तरह के होते हैं। ऊनी, सूती, सिल्क, जूट, नाइलॉन आदि कई तरह के वस्त्र (कपड़े) होते हैं। कुछ वस्त्र चमकीले होते हैं तो कुछ में चमक नहीं होती है अर्थात डल होते हैं। कुछ वस्त्र हमें गर्म रखते हैं तो कुछ वस्त्र का उपयोग हम गर्मियों में करते हैं। गर्मियों में वैसे कपड़ों का उपयोग किया जाता है जो हमें ठंढ़ा रखता है। वस्त्र का गुण तंतु पर निर्भर होता है जिससे वे बनते हैं।
तंतु (फाइवर या रेशा)
यह तंतु या रेशा ही है जिससे वस्त्र बनाया जाता है है। तंतु कई प्रकार के होते हैं।
(a) प्राकृतिक तंतु (नैचुरल फाइवर)
(b) संश्लिष्ट तंतु या बनाबटी तंतु (आर्टिफिशियल फाइवर या सिंथेटिक फाइवर)
(a) प्राकृतिक तंतु या नैचुरल फाइवर
जंतुओं या पादपों से प्राप्त होने वाले तंतु (फाइवर) को प्राकृतिक तंतु या नैचुरल फाइवर कहा जाता है। जैसे: सूत, ऊन, सिल्क (रेशम), जूट, आदि। ये प्राकृतिक तंतु इसलिए कहलाते हैं क्योंकि ये हमें सीधा प्राकृतिक से प्राप्त होते हैं।.
(b) संश्लिष्ट तंतु या बनाबटी तंतु (आर्टिफिशियल फाइवर या सिंथेटिक फाइवर)
ऐसे रासायनिक पदार्थ जो जंतुओं या पादपों से प्राप्त नहीं होता है से बनाये जाने वाले तंतु को संश्लिष्ट तंतु या बनाबटी तंतु कहते हैं। जैसे पॉलिएस्टर, नायलॉन, एक्रिलिक, आदि।
प्राकृतिक तंतु के प्रकार
प्राकृतिक तंतुओं को उनके श्रोत के आधार पर निम्नांकित दो भागों में बांटा जा सकता है।
(i) पादप तंतु
(ii) जांतव तंतु (एनीमल फाइवर)
(i) पादप तंतु (प्लांट फाइवर)
पादपों से प्राप्त होने वाले तंतु को पादप तंतु या प्लांट फाइवर कहा जाता है। जैसे सूत, जूट या पटसन, फ्लेक्स, नारियल के रेशे, आदि।
(ii) जांतव तंतु (एनीमल फाइवर)
जंतुओं से प्राप्त होने वाले तंतु को जांतव तंतु या एनीमल फाइवर कहा जाता है। जैसे ऊन तथा रेशम (सिल्क)।
हमें ऊन भेड़ अथवा बकरी के रोएं से प्राप्त होता है। इसके अलावे खरगोश, याक तथा ऊँट, आदि के रोएं से प्राप्त होता है। भेड़, बकरी, खरगोश, याक, ऊँट आदि जानवरों के शरीर पर मोटे रोएं होते हैं। शरीर के ये मोटे रोएं बाहर की ठंढ़क को शरीर के अंदर नहीं प्रवेश करने देते हैं तथा शरीर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने देते हैं अर्थात इंसुलेटर का काम करते हैं। ये रोएं इन जानवरों को खराब मौसम से विशेषकर ठंढ से बचाते हैं। इनके शरीर के ये रोएं फ्लीस कहलाते हैं। फ्लीस को काट लेने पर इन्हीं रोएं को ऊन कहा जाता है।
रेशम हमें रेशम के कीड़ों के कोकून से प्राप्त होता है। रेशम की खोज सर्वप्रथम चीन में की गई थी।
कुछ पादप तंतु
रूई (कॉटन) तथा रूई की खेती (कपास तथा कपास की खेती)
भारत में रूई की जानकारी 1800 ई0पू0 से ही थी। रूई को कपास भी कहा जाता है। रूई के पौधे खेतों में ऊगाए जाते हैं। रूई को कपास भी कहा जाता है। रूई को अंग्रेजी में कॉटन (cotton) कहा जाता है।
रूई की खेती के लिए उष्ण जलवायु तथा काली मिट्टी [मृदा (सॉयल (soil))] सबसे उपयुक्त होती है। रूई की खेती भारत के प्राय: सभी इलाके में की जाती है। महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु तथा मध्य प्रदेश में रूई [कपास (कॉटन)] की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।
रूई [कपास (कॉटन)] को बसंत ऋतु के शुरू में अर्थात भारत में जनवरी माह के अंत से लेकर फरवरी में बोया जाता है। रूई [कपास (कॉटन)] के पौधे लगभग 1 से 2 मीटर तक ऊँचे होते हैं। रूई [कपास (कॉटन)] के पौधे में उसके बोये जाने के लगभग 60 दिनों में फूल लगते हैं। रूई [कपास (कॉटन)] के फूल उसके बाद फल में बदल जाते हैं। रूई [कपास (कॉटन)] के फल गोलीय आकार के होते हैं तथा नींबू के आकार के या उससे थोड़े बड़े होते हैं। रूई [कपास (कॉटन)] के फल को कपास गोलक (कॉटन बोल) कहा जाता है।
पूर्ण परिपक्व होने पर पर कपास गोलक (कॉटन बोल) टूटकर खुल जाते हैं। कपास गोलक (कॉटन बोल) के खुलने के बाद कपास तंतुओं से ढ़के बीजों को देखा जा सकता है। कपास तंतुओं का रंत उजला अर्थात सफेद होता है। कपास गोलक (कॉटन बोल) के पक कर खुलने के बाद बहुत सारा कपास तंतु खेतों में भी बिखर जाते हैं तथा अधिका फल में ही खुलकर लगे होते हैं। इस समय रूई (कपास) के खेत कपास के तंतुओं के कारण इतना सफेद हो जाता है जैसे खेतों को हिम (बर्फ) ने ढ़क लिया हो। कपास तंतुओं को कॉटन ऊल भी कहा जाता है।
कपास ओटना [रूई (कपास) का प्रक्रमण अर्थात रूई (कपास) को बनाने का कार्य]
कपास गोलक (कॉटन बोल) को खेतों से हाथों द्वारा चुन लिया जाता है। उसके पश्चात कपास (रूई) से बीजों को अलग किया जाता है। कपास (रूई) से बीजों को अलग करने की प्रक्रिया को कपास ओटना कहते हैं। कपास ओटने को अंग्रेजी में गिनिंग कहते हैं। कपास को बीजों से अलग करने के लिए बड़े बड़े कंघों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया को कंकतन भी कहते हैं।
पारंपरिक ढ़ंग से कपास को हाथों से ही ओटा जाता है अर्थात कपास के बीजों को कपास से हाथों तथा कंघों की मदद से ही अलग किया जाता है। परंतु आजकल कपास ओटने (गिनिंग) के लिए मशीनों का उपयोग किया जाता है। मशीन जिससे कपास तथा बीजों को अलग किया जाता है को गिनिंग मशीन कहा जाता है।
कपास ओटने के बाद कपास (रूई) को दबाकर बड़े बड़े गांठों में बदल दिया जाता है। कपास के एक गांठ का वजन 200 किलोग्राम तक हो सकता है। कपास के गट्ठो को उसके बाद कताई मिलों (स्पिनिंग मिल) में भेज दिया जाता है।
रूई [कपास (कॉटन)] का उपयोग
रूई [कपास (कॉटन)] के कुछ उपयोग निम्नांकित हैं:
(a) रूई [कपास (कॉटन)] का उपयोग कपड़ा बनाने में किया जाता है।
(b) रूई [कपास (कॉटन)] का उपयोग अस्पतालों में मरहम पट्टी आदि के लिए सोख्ता के रूप में किया जाता है।
(c) रूई [कपास (कॉटन)] का उपयोग बैंडेज बनाने में किया जाता है। बैंडेज का उपयोग अस्पतालों में पट्टी बांधने में किया जाता है।
(d) रूई [कपास (कॉटन)] का उपयोग रजाई, गद्दे, तकिया आदि में भरने के लिए किया जाता है।
(e) रूई [कपास (कॉटन)] के बीजों से तेल निकाला जाता है। रूई के बीजों का तेल खाने में भी उपयोग किया जाता है।
जूट या पटसन
जूट की खेती जूट के रेशों (तंतुओं) को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। जूट को हिन्दी में पटसन, पाट या पटुआ भी कहते हैं। जूट या पटसन की खेती मुख्य रूप से भारतीय उपमाद्वीप तथा अफ्रिका के देशों में की जाती है। भारत में जूट (पटसन) की खेती प्रमुख रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार तथा असम में की जाती है।
जूट (पटसन) के तंतु को जूट (पटसन) के तने से प्राप्त किया जाता है। भारत में जूट (पटसन) की खेती वर्षा ऋतु में की जाती है। साधारणतया जूट के फसल को पुष्पण अवस्था में ही काटा जाता है। कटाई के बाद जूट के तनों को कुछ दिनों तक जमे हुए पानी में रखा जाता है। पानी में रखने से जूट के तने गलने लगते हैं। इस क्रम में जूट के रेशे (तंतु) तथा तने के बीच के गोंद जैसे पदार्थ को बैक्टीरिया खा जाते हैं जिससे जूट के रेशे तने से अलग होने लगते हैं। इसके बाद जूट के रेशे (तंतु) को हाथों द्वारा तने से अलग कर लिया जाता है। जूट के तने को जमे हुए पानी में रखकर गलाने की प्रक्रिया को अंग्रेजी में रेटिंग कहा जाता है।
जूट के तने से तंतु को निकालने के पश्चात तंतु को सुखाकर बंडल बनाकर फैक्ट्रियों में कताई आदि के लिए भेज दिया जाता है।
जूट के रेशे लम्बे, खुरदरे तथा मोटे होते हैं।
जूट (पटसन) का उपयोग
जूट (पटसन) के कुछ उपयोग नीचे दिये गये हैं:
(a) जूट (पटसन) के रेशों (तंतु) का उपयोग रस्सी, डोर मैट, चटाई, तथा बैग, आदि बनाने के काम में होता है।
(b)अच्छे जूट (पटसन) के रेशों (तंतु) का उपयोग पोशाकों के लिए कपड़ा बनाने में भी किया जाता है।
(c) चूँकि जूट (पटसन) के रेशे (तंतु) पर्यावरण के लिए मित्रवत (एनवारमेंट फ्रेंडली) हैं, अत: जूट से बने कपडों तथा हैंड बैग का प्रचलन इन दिनों काफी बढ़ गया है।
फ्लैक्स
जूट की तरह ही फ्लैक्स के रेशे (तंतु) को फ्लैक्स के पौधों से प्राप्त किया जाता है। फ्लैक्स के पौधों की कटाई के बाद उसे जमे हुए पानी में सड़ने के लिए कुछ दिनों तक छोड़ दिया जाता है। सड़ने के क्रम में फ्लैक्स के रेशों तथा तने के बीच के गोंद जैसे पदार्थ को बैक्टीरिया द्वारा खा लिया जाता है जिससे रेशे तने से अलग होने लगते हैं। इस प्रक्रिया को सड़ने या गलने की प्रक्रिया अथवा रेटिंग कहा जाता है।
फ्लैक्स के पौधों को तीसी का पौधा भी कहा जाता है।
जब जूट के तने पूरी तरह गल जाते हैं तो रेशों को तने से हाथों द्वारा अलग कर लिया जाता है। तनों से रेशों को अलग करने की प्रक्रिया को स्कचिंग कहा जाता है। स्कचिंग अर्थात फ्लैक्स के रेशों को तने से अलग करने की प्रक्रिया पहले सामान्यत: हाथों द्वारा किया जाता था। आजकल स्कचिंग के लिए मशीन का उपयोग किया जाता है।
स्कचिंग के बाद फ्लैक्स के रेशों को गठ्ठर बना कर फैक्ट्रियों में कताई के लिए भेज दिया जाता है।
फ्लैक्स के रेशे मुलायम, चमकीले तथा लम्बे होते हैं।
फ्लैक्स के रेशों का उपयोग
फ्लैक्स के रेशों के कुछ उपयोग नीचे दिये गये हैं
(a) फ्लैक्स के रेशों से लाईनेन तथा लेस बनाए जाते हैं।
(b) फ्लैक्स के रेशों का उपयोग मछली पकड़ने के जाल तथा रस्सी बनाने में किया जाता है।
(c) फ्लैक्स के रेशों का उपयोग सिगरेट में उपयोग किये जाने वाले कागज बनाने में किया जाता है।
(d)फ्लैक्स के पौधों से प्राप्त बीज के तेल का उपयोग पेंट तथा वारनीश मे मिलाने के लिए किया जाता है।
कॉयर
कॉयर एक तरह का रेशा है जिसे नारियल से प्राप्त किया जाता है। कॉयर के रेशों का उपयोग रस्सी बनाने, डोर मैट बनाने, खाट को बुनने आदि में किया जाता है। कॉयर के रेशों से बने रस्सी काफे मजबूत होते हैं तथा पानी में बहुत समय तक रहने के बाबजूद भी खराब (सड़ते) नहीं होते हैं।
सूती तागे (धागों) की कताई
रेशों (तंतु) से धागा बनाने की प्रक्रिया को कताई या सूत की कताई कहा जाता है।
कताई से पहले कपास (रूई) के गट्ठे को खोलकर साफ किया जाता है। कपास (रूई) के गट्ठे को खोलकर साफ करने की प्रक्रिया को कार्डिंग कहा जाता है।
सफाई के बाद रूई (कपास) को छोटे छोटे लम्बे आकार में बना दिया जाता है, इसे पूनी या कपास का पुंज कहते हैं। कपास के इन छोटे पुंज को सिल्वर भी कहा जाता है।
सिल्वर, अर्थात कपास (रूई) के पुंज से रेशों से खींचकर ऐंठा जाता है, ऐसा करने से रेशे पास पास आ जाते है और तागा (धागा) बन जाता है।
रेशों से धागा (तागा) बनाने के लिए एक साधारण यंत्र जिसका नाम तकली है का उपयोग किया जाता है। रेशों से धागा (तागा) बनाने के लिए एक दूसरे यंत्र जिसका नाम चरखा है का भी उपयोग किया जाता है।
चरखे तथा तकली को हाथ से चलाया जाता है।
महात्मा गाँधी ने चरखे का उपयोग स्वतंत्रता आंदोलन में उपयोग किया था। स्वतंत्रता आंदोलन में चरखे का उपयोग काफी लोकप्रिय हुआ था तथा चरखे का उपयोग स्वतंत्रता आंदोलन का पर्याय बन गया था। महात्मा गाँधी ने लोगों को हाथ के काते गये तागों से बुने वस्त्रों को पहनने तथा ब्रिटेन की मिलों मेंबने आयातित कपड़ों का बहिष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया था।
बृहत पैमाने पर रेशों से धागों (तागों) की कताई फैक्ट्रियों में किया जाता है। धागों की कताई के फैक्ट्रियों को कताई मिल या स्पाइनिंग मिल कहा जाता है।
तागे से वस्त्र
कताई के बाद धागों (तागों) से कपड़ा बनाया जाता है। तागों से कपड़ा बनाने की कई विधियाँ प्रचलित हैं जिनमें बुनाई तथा बंधाई दो प्रचलित विधियाँ हैं।
बुनाई (विविंग)
तागों के दो सेट को एक साथ व्यवस्थित कर कपड़ा बनाने की प्रक्रिया को बुनाई कहा जाता है।
बुनाई के लिए धागों के एक सेट को ऊपर रखा जाता है, जिसे तानी (वार्प) कहते हैं तथा दूसरे सेट को नीचे रखा जाता है जिसे भरनी (वेफ्ट) कहते हैं। तागों इन दोनों, तानी तथा भरनी को एक मशीन की सहायता से ऊपर नीचे इस प्रकार बार बार किया जाता है ताकि तागों के दोनों सेट एक दूसरे से अंतर्गथित (जुड़) जायें तथा एक लम्बा तथा चौड़ा कपड़ा बन सके।
कपड़ों की बुनाई के लिए उपयोग किये जाने वाले यंत्र को करघा कहा जाता है। हाथों से चलाये जाने वाले करघा को हस्त चालित करघा या हैंडलूम कहते हैं तथा बिजली से चलने वाले करघों को पावरलूम या विद्युत प्रचालित करघा कहा जाता है।
बंधाई (एक विशेष प्रकार की बुनाई)
तागों से कपड़ों की एक विधि बंधाई (निटिंग) भी है। बंधाई (निटिंग) एक विशेष प्रकार की बुनाई ही होती है। बंधाई (निटिंग) की विधि में एक ही तागे का उपयोग किया जाता है।
बंधाई (निटिंग) की विधि द्वारा हाथों या मशीन दोनों के उपयोग से कपड़ा बनाया जाता है। बंधाई (निटिंग) की विधि से प्राय: स्वेटर, मोजे, मफलर, मेजपोश (मेज ढ़कने का एक प्रकार का कपड़ा) बनाया जाता है।
बुनाई तथा बंधाई का उपयोग विभिन्न प्रकार के वस्त्रों के निर्माण में किया जाताहै। इन वस्त्रों का उपयोग पहनने की विविध वस्तुओं को बनाने में किया जाता है।
वस्त्र सामग्री का इतिहास
प्राचीन समय में जब लोग सभ्य नहीं थे, जंगलों में नंगे रहा करते थे। धीरे धीरे लोग खराब मौसम से अपने आपको बचाने के लिए शरीर को जानवरों के चमड़ों, पेड़ों के पत्ते और छाल से ढ़कने लगे।
उसके बाद लोग पतली टहनियों तथा घास को बुनकर चटाई बनाना सीख गये। लोग पेड़ की पतली डालियों, पेड़ के रेशों तथा जानवरों के रोयें को ऐंठकर लम्बी रस्सियाँ भी बनाने लगे। इन लम्बी रस्सियों को बुनकर लम्बा टुकड़ा भी तैयार करने लगे तथा उन टुकड़ों से अपने शरीर को ढ़कने लगे। शुरू में लोग इन रस्सियों तथा पत्तों से बने कपड़ों का उपयोग कमर के नीचे के हिस्से को ढ़कने के लिए करने लगे। संभवत: यही कमर से नीचे ढ़कने वाला कपड़ा आधुनिक स्कर्ट बन गया।
सूई के आविष्कार का इतिहास लगभग 50,000 वर्ष पुराना है। सूई के आविष्कार ने सभ्यता को एक नया आयाम दिया। सूई के आविष्कार होने से लोग कपड़ों को शरीर के अनुसार सिलने लगे।
समुदाय में रहना शुरू करने के बाद खेती करना तथा कपड़ा बनाना दोनों मानव सभ्यता के लिए बहुत बड़ी खोज थी।
अब तक मिले प्रमाणों के अनुसार सर्वप्रथम चीन, भारत तथा मिश्र के लोगों ने कपास (रूई) से कपड़ा बनाना प्रारंभ किया। जबतक सूई का आविष्कार नहीं हुआ था, लोग कपड़ों को शरीर पर लपेट लिया करते थे। आज भी कई वस्त्र, जैसे धोती, साड़ी, लुंगी, आदि को बिना सिलाई के ही शरीर पर केवल लपेट कर पहना जाता है।
शुरू में लोग कपड़ों का उपयोग केवल खराब मौसम से शरीर की रक्षा के लिए करते थे। लेकिन आज अनगिनत डिजाइन के पोशाक फैशन की वस्तु हो गई है। लेकिन आज भी कपड़े हमे एक आधुनिकता प्रदान करने के साथ साथ खराब मौसम से हमारे शरीर की रक्षा करते हैं। बिना कपड़ों के मनुष्य जाति की कल्पना मुश्किल है। यदि कोई व्यक्ति बिना कपड़ों के दिख जाता है तो उसे या तो जंगली या पागल कहा जाता है।
आजकल हमारे खिड़की, दरबाजे भी कपड़ों से बने पर्दों से ढ़के रहते हैं तथा हमारे घरों की सुंदरता बढ़ाने के साथ साथ घरों की खराब मौसम से भी रक्षा करते हैं। इसके अलावे विभिन्न प्रकार के बेड शीट, सोफा कवर, टेबुल क्लॉथ, आदि भी हमारे घरों की सुंदरता बढ़ाते हैं।
आज कपड़ा एक बहुत बड़ा उद्योग हो गया है।
सारांश
कपड़े धागों (तागों) से बनते हैं। तथा तागा तंतु (रेशा) से बनता है।
तंतु (रेशा) दो प्रकार का होता है, प्राकृतिक तंतु (रेशा) और संश्लिष्ट तंतु (रेशा) या बनाबटी तंतु (रेशा)।
संश्लिष्ट या बनाबटी तंतु (रेशा): रेशे या तंतु जिन्हें प्रयोगशाला में बिना पौधों या जंतुओं से प्राप्त सामग्री के उपयोग से तैयार किया जाता है, संश्लिष्ट या बनाबटी तंतु (रेशा) कहा जाता है। जैसे नायलॉन, पॉलिएस्टर, एक्रिलिक आदि।
प्राकृतिक रूप से प्राप्त तंतु या रेशों को प्राकृतिक तंतु या रेशा कहा जाता है। जैसे कपास (रूई), रेशम, ऊन, जूट (पटसन) आदि।
प्राकृतिक तंतु दो तरह के होते हैं: (क) पादप तंतु और (ख) जांतव तंतु
(क) पादप तंतु : वैसे तंतु (रेशे) जो हमें पौधों से प्राप्त होते हैं, पादप तंतु कहलाते हैं। जैसे: रूई, जूट (पटसन), फ्लेक्स, कॉयर आदि।
(ख) जांतव तंतु : जानवरों से प्राप्त होने वाले तंतु को जांतव तंतु कहा जाता है। जैसे: रेशम, तथा ऊन, आदि।
तंतु को खींचकर ऐंठने से तागा (धागा) बनता है।
धागे (तागे) के उपयोग से कपड़ा बनता है।
तागे से कपड़ा बनाने के मुख्यत: दो विधियाँ हैं: (क) बुनाई (ख) बंधाई
बुनाई द्वारा कपड़ा बनाने की प्रक्रिया में तागे के दो सेट का उपयोग होता है। तागे के एक सेट को तानी तथा दूसरे सेट को भरनी कहा जाता है।
बंधाई भी एक प्रकार की बुनाई है। बंधाई द्वारा कपड़ा बनाने की प्रक्रिया मं तागे के एक ही सेट का उपयोग होता है। बुनाई काँटों या क्रुश के उपयोग से किया जाता है। स्वेटर, मफलर, मोजे, आदि प्राय: बंधाई की प्रक्रिया से बनाये जाते हैं।
बुनाई एक प्रकार के यंत्र, जिसका नाम करघा (लूम) होता है, पर किया जाता है।
करघा (लूम) या तो हाथ से चलाया जाता है या बिद्युत से।
हाथ से चलने वाले करघा को हस्त चालित करघा (हैंडलूम) तथा विद्युत से चलने वाले करघे को विद्युत चालित करघा (पावरलूम) कहा जाता है।
प्राचेन समय में लोग अपने शरीर को ढ़कने के लिए पेड़ की पत्तियाँ, पेड़ के छाल, जानवरों के चमड़े आदि का उपयोग करते थे।