रेशे एक सतत तंतु (फिलामेंट) की तरह होते हैं। रेशे का उपयोग अनेक प्रकार से किया जा सकता है। रेशों को कात कर धागा या रस्सी बनाया जा सकता है। रेशों का उपयोग मुख्य रूप से कपड़े बनाने में किया जाता है।
रेशों को उनके प्राप्ति के आधार पर मुखत: दो भागों में बाँटा जा सकता है, प्राकृतिक रेशा और कृत्रिम रेशा। प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले रेशों को प्राकृतिक रेशा और प्रयोगशालाओं में बनाये जाने वाले रेशों को कृत्रिम रेशा कहा जाता है।
प्राकृतिक रेशों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है, पौधों से प्राप्त होने वाले रेशे और जानवरों से प्राप्त होने वाले रेशे।
पौधों से प्राप्त होने वाले रेशों को पादप रेशा तथा जानवरों से प्राप्त होने वाले रेशों को जांतव रेशा कहा जाता है।
कपास (रूई), जूट, ऊन, सिल्क आदि प्राकृतिक रेशों के उदाहरण हैं, जबकि रेयान, टेरीलीन, पॉलिएस्टर आदि कृत्रिम रेशों के उदाहरण हैं।
जंतुओं से प्राप्त होने वाले रेशे, जैसे कि ऊन और सिल्क प्रोटीन से बने होते हैं तथा जटिल संरचना वाले होते हैं।
अत्यधिक ठंढ़ वाले इलाकों में रहने वाले जानबरों के शरीर पर मोटे बालों की परत होती है। शरीर पर अवस्थित इन मोटे बालों के बीच हवा के बुलबुले फंस जाते हैं तथा यह विषमरोधी की तरह काम करते हैं, जो बाहर के ठंढ़ को अंदर नहीं आने देती है तथा अंदर के शरीर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देती है, अर्थात ये मोटे बालों की परतें उष्मारोधी का कार्य करती है। इस तरह शरीर पर बालों की मोटी परतें उन जानवरों को ठंढ़ से बचाती है तथा अत्यधिक ठंढ़े प्रदेशों में रहने के अनुकूल बनाती हैं।
इन जानवरों के शरीर के बालों की इन्हीं मोटी परतों से ऊन प्राप्त किया जाता है। भेड़, बकरी, ऊँट, खरगोश, लामा, याक, आदि जानवरों से ऊन प्राप्त किया जाता है।
ऊन, भेड़ तथा अन्य कई जंतुओं के शरीर परा पाया जाने वाला घना तथा रेशे की गर्म परतें होती हैं। भेड़ तथा ऊन देने वाले अन्य जंतुओं के शरीर पर पाये जाने वाले बालों की मोटी परतों को जांतव रेशा कहा जाता है।
भेड़ के शरीर पर उगने वाले बालों में कई विशेष गुण होते हैं जो उन्हें वस्त्र के उत्पादन के लिए अनुकूल बनाते हैं। ऊन का उपयोग कई तरह के कपड़े, तथा वस्त्र आदि बनाने में किया जाता है।
प्राचीन समय में लोग ऊन के बारे में नहीं जानते थे। धीरे धीरे बाद में शायद लोगों ने समझना शुरू किया होगा कि भेड़, बकरी, तथा अन्य कई जानवरों, जिनके शरीर पर बालों की मोटी परतें होती थी, गर्म होते थे, तथा उनसे शरीर को ढ़कने से सर्दियों से बचा जा सकता था। इस तरह लोगों ने जानवरों की खालों से शरीर को ढ़क कर सर्दियों में अपने शरीर की सुरक्षा करने लगे।
प्रारम्भ में भेड़ का पालन दूध तथा मीट (माँस) से लिए किया जाने लगा। धीरे धीरे बाद में लोगों को पता चला कि भेड़ों के शरीर की त्वचा के पास पाये जाने वाले बाल मुलायम और ज्यादा अच्छे किस्म के हैं। ऐसा कहा जाता है कि लगभग पालन किया 8000 ईoपूo से 5000 ईoपूo के बीच लोगों ने ऊन से धागा बनाना शुरू किया।
जैसे ही हम ऊन का नाम सुनते हैं, सबसे पहले भेड़ों का ख्याल आता है। लेकिन भेड़ों के अलावे बकरी, खरगोश, लामा, याक, अलपासा, ऊँट आदि जैसे जानवरों से भी ऊन प्राप्त किये जाते हैं।
ऊन देने वाले जंतुओं के शरीर पर दो प्रकार के बाल होते हैं। एक दाढ़ी के रूखे बाल तथा दूसरा त्वचा के नजदीक वाले मुलायम बाल। ऊन देने वाले जंतुओं की त्वचा के पास पाये जाने वाले तंतुरूपी मुलायम बालों से ऊन प्राप्त किया जाता है।
भेड़ों की लगभग 100 से ज्यादा प्रजातियाँ पायी जाती हैं। विश्व के विभिन्न देशों में भेड़ों की विभिन्न प्रजातियाँ पायी जाती हैं।
भारत के लद्दाख में बकरियों की एक विशेष प्रजाति पायी जाती है जिसे कश्मीरी बकरी के नाम से जाना जाता है। कश्मीरी बकरी को चांगथांगी बकरी भी कहा जाता है।
कश्मीरी बकरी से प्राप्त होने वाले ऊन को पशमिना ऊन कहा जाता है। कश्मीरी बकरी से प्राप्त होने वाले ऊन से बनाये गये शॉल को पशमीना शॉल के नाम से जाना जाता है।
पशमिना नाम फारसी भाषा के शब्द पश्म से आया है, जिसका अर्थ ऊन होता है।
मेरिनो भेड़ की एक प्रजाति का नाम है, जो बहुत ही उच्च गुणवत्ता वाले ऊन के लिए विश्व प्रसिद्ध है। मेरिनो भेड़ मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया और अमरीका में पाया जाता है।
अंगोरा बकरियों की एक प्रजाति विशेष का नाम है। अंगोरा बकरी से मिलने वाले ऊन काफी महीन, चिकने और मुलायम होते हैं। अंगोरा बकरी से मिलने वाले ऊन को मोहर या मोहायर कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है "महीन और चिकना ऊन"। ऐसा माना जाता है कि अंगोरा बकरी मुख्य रूप से तुर्की से आयी हुई एक प्रजाति है।
अंगोरा बकरी से वरणात्मक प्रजनन द्वारा कई प्रजातियाँ प्राप्त की गयी हैं। इसमें प्रमुख है भारतीय अंगोरा बकरी, सोवियत अंगोरा बकरी, रसियन अंगोरा बकरी जिसे रसियन डॉन कहा जाता है, अमेरिकन अंगोरा बकरी जिसे पायगोरा या पगोरा कहा जाता है, आदि।
अंगोरा बकरी से मिलने वाले ऊन को पशमिना ऊन के नाम से भी जाना जाता है। पशमिना शॉल एक विश्व प्रसिद्ध शॉल है।
भारत में अंगोरा बकरी कश्मीर और लद्दाख के पहाड़ी ईलाके में पाया जाता है। यह प्रजाति तिब्बत में भी पाया जाता है।
खरगोश की एक विशेष प्रजाति को भी अंगोरा खरगोश के नाम से जाना जाता है। अंगोरा खरगोश से भी ऊन प्राप्त किया जाता है।
भारत में भेड़ों की कई प्रजातियाँ पायी जाती हैं।
भारत में पायी जाने वाले भेड़ों की कुछ प्रजातियाँ | ||
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प्रजाति | ऊन की गुणवत्ता | राज्य जिनमें ये पाये जाते हैं |
लोही | अच्छी गुणवत्ता | राजस्थान, पंजाब |
रामपुर बुशायर | भूरी ऊन | उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश |
नाली या नली | गलीचे की ऊन | राजस्थान, हरियाणा, पंजाब |
बाखरवाल | ऊनी शॉलों के लिए ऊन | जम्मू और कश्मीर |
मारवाड़ी | मोटी ऊन | गुजरात |
पाटनवाड़ी | होजरी के लिए ऊन | गुजरात |
श्रोत: एनसीईआरटी विज्ञान पाठ्य पुस्तक क्लास सातवीं पेज नम्बर 27 |
भेड़ को दूध और माँस के लिए भी पाला जाता है। लेकिन भेड़ पालन का मुख्य उद्देश्य ऊन प्राप्त करना होता है। भेड़ों की त्वचा के निकट पाए जाने बालों को काटकर उसे संसाधित करने के बाद हमे ऊन प्राप्त होता है।
भेड़ों को पालना, उनका प्रजनन और उचित देखभाग को भेड़ पालन कहा जाता है।
भेड़ पालन भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे कि जम्मू और काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्त्राखंड, अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम आदि। इसके अलावे कुछ मैदानी भाग जैसे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, और गुजरात आदि में भी भेड़ पालन किया जाता है।
भेड़ शाकाहारी होते हैं। गड़ेरिये (भेड़ पालक या चरवाहे) आम दिनों में भेड़ों को मैदानों और जंगलों चराने के लिए ले जाते हैं। लेकिन प्राय: अत्यधिक सर्दियों वाले दिनों में भेड़ों को घरों के अंदर ही रखा जाता है। घरों के अंदर भेड़ों को प्राय: अनाज, पत्तियाँ और अन्य सूखे चारा खिलाया जाता है।
भेड़ों की सभी नस्लों के बाल मुलायम और तंतुरूपी नहीं होते हैं जबकि तंतुरूपी और मुलायम बाल ही ऊन के लिए उपयुक्त होते हैं। इसलिए भेड़ों के प्रजनन के लिए उनके जनकों का विशेष रूप से चयन किया जाता है, ताकि वैसी अच्छी नस्लों के भेड़ प्राप्त किये जा सकें जिनके बाल ऊन के लिए उपयुक्त हों। इस तरह के प्रजनन को वरणात्मक प्रजनननकहा जाता है।
वरणात्मक प्रजनन के लिए कम से कम एक भेड़ अर्थात नर या मादा अच्छे किस्म के अर्थात उच्च गुणवत्ता वाले चयनित किये जाते हैं ताकि ऊन देने वाली भेड़ों की अच्छी नस्लें मिल सके।
भेड़ों के शरीर पर अवस्थित बालों की मोटी परतों को गर्मी के मौसम में काटा जाता है। भेड़ों के बालों की कटाई उसकी त्वचा की उपरी मृत पतली परतों के साथ किया जाता है। इसमें भेड़ों को कोई दर्द नहीं होता है। यह वैसा ही है जैसा कि किसी व्यक्ति की दाढ़ी बनाना।
जाड़े का मौसम आते आते भेड़ों के शरीर पर प्राकृतिक रूप से बाल पुन: उग आते हैं जो उनकी ठंढ़ से सुरक्षा करता है।
भेड़ों के बालों की कटाई के बाद उसे संसाधित कर ऊन प्राप्त किया जाता है।
बाजार में जो ऊन हमें मिलता है वह तैयार उत्पाद होता है।
भेड़ों के शरीर से बालों की कटाई से लेकर तैयार उत्पाद के रूप में ऊन प्राप्त करना कई चरणों में सम्पन्न किया जाता है।
इस प्रक्रिया के चरण हैं बालों की कटाई, अभिमार्जन (धुलाई), छँटाई, रंगाई आदि।
चरण (I) : सर्वप्रथम भेड़ों के शरीर से बालों की कटाई की जाती है। इस प्रक्रिया को ऊन की कटाई कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे शियरिंग (Shearing) कहा जाता है।
ऊन की कटाई प्राय: वर्ष में एक बार; गर्मियों के मौसम में किया जाता है। ऊन की कटाई गर्मियों में करने पर शरीर पर बाल के न होने के बाबजूद भी मौसम का तापमान सामान्य रहने के कारण भेड़ों को कोई समस्या नहीं होती है। क्योंकि गर्मियों भेड़ों को बालों के सुरक्षा कवच की आवश्यकता नहीं होती है।
भेड़ों के शरीर से बाल की कटाई का कार्य विशेष प्रकार के ब्लेड से किया जाता है। इन ब्लेडों को ऊन की कटाई करने वाले ब्लेड कहा जाता है। आजकल ऊन की कटाई मशीनों द्वारा की जाती है।
चरण (II): भेड़ों के शरीर से काटे गये बालों में कई प्रकार की गंदगी जैसे चिकनाई, मिट्टी आदि होती है। इसकी गर्म पानी और कुछ रसायनों में अच्छी तरह से धुलाई की जाती है। भेड़ों के शरीर से त्वचा सहित काटे गये बालों की धुलाई को अभिमार्जन कहा जाता है। अंग्रेजी में इस प्रक्रिया को स्करिंग (Scouring) कहा जाता है।
चरण (III): भेड़ों के शरीर से काटे गये ऊन की धुलाई के बाद उसे विभिन्न बालों वाले गठन के अनुसार अलग अलग छाँटा जाता है। इस प्रक्रिया को ऊन की छँटाई कहा जाता है। इस प्रक्रिया को अंग्रेजी में सॉर्टिंग (Sorting) कहते हैं। यह प्रक्रिया प्राय: कारखानों में सम्पन्न की जाती है।
चरण (IV): छँटाई के बाद ऊन के रेशों को सुखाकर उनमें से छोटे और फूले हुए रेशों को अलग कर लिया जाता है। ये छोटे छोटे फूले हुए रेशे बर कहलाते हैं।
प्राय: स्वेटरों में इस प्रकार के छोटे छोटे फूले हुए रेशे अर्थात बर निकल आते हैं। छँटाई किये जाने वाले ये बर वैसे ही होते हैं जैसे कि स्वेटरों में।
ऊन के रेशों से बर को अलग करने के बाद पुन: ऊन के रेशों को अच्छी तरह धोया अर्थात अभिमार्जन किया जाता है। इस पुन: अभिमार्जन की प्रक्रिया में ऊन के रेशे अच्छी तरह साफ हो जाते हैं।
अब ऊन के रेशे कताई के लिए तैयार हो जाते हैं।
चरण (V): ऊन के रेशों की अच्छी तरह छँटाई और धुलाई के बाद उसे जरूरत के अनुसार विभिन्न रंगों में रंगा जाता है। भेड़ों के शरीर से उतारे गये ऊन के रेशों का रंग प्राकृतिक रूप से प्राय: काला, भूरा और ऊजला होता है।
चरण (VI): रंगाई के बाद ऊन के रेशों को सुलझाकर सीधा किया जाता है।
ऊन के लम्बे वाले रेशों को कातकर स्वेटर के लिए ऊन के प्राप्त किया जाता है। और प्राय: छोटे छोटे रेशों का उपयोग ऊनी कपड़ा बनाने में किया जाता है।
ऊन के गुणवत्ता की माप उनके व्यास के आधार पर की जाती है। ऊन के रेशों का व्यास माइक्रॉन में मापा जाता है। 15.5 से कम व्यास वाले ऊन को उच्चतम गुणवत्ता वाले श्रेणी का माना जाता है। उच्चतम गुणवत्ता वाले अर्थात 15.5 माइक्रॉन से कम व्यास वाले ऊन को अल्ट्राफाईन मेरिनो कहा जाता है।
ऊन के रेशों का उपयोग विभिन्न तरह के वस्त्रों, पोशाकों, कालीन, कम्बल, गर्म चादर, शॉल आदि बनाने में किया जाता है। पश्मीना शॉल एक विश्व प्रसिद्ध शॉल है।
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