रेशों से वस्त्र तक


रेशम का इतिहास और संसाधन

सिल्क (रेशम) के रेशे सिल्क के कीटों से प्राप्त किये जाते हैं। चूँकि सिल्क (रेशम) के कीट एक प्रकार के जीव हैं, अत: सिल्क (रेशम) जांतव रेशा है।

सिल्क (रेशम) के रेशे प्राप्त करने के बाद उनकी कताई कर धागा बनाया जाता है तथा इन धागों से सिल्क (रेशम) के कपड़े बनाये जाते हैं। मानव बाल की तरह ही सिल्क (रेशम) के रेशे प्राकृतिक प्रोटीन से बने होते हैं।

सिल्क एक अंग्रेजी शब्द है। इसे हिंदी में रेशम के नाम से जाना जाता है।

सिल्क (रेशम) के कीटों द्वारा बनाये जाने वाले कोकून से सिल्क के रेशे प्राप्त किये जाते हैं। सिल्क (रेशम) के अधिकांश कपड़ों को बिना ड्राइक्लीन किये भी साधारण तरीके द्वारा हाथ से साफ किया जा सकता है। सिल्क से बने कपड़े सिकुड़ते नहीं हैं। सिल्क के कपड़े काफी उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं। सिल्क की साड़ियाँ तथा अन्य ड्रेस मैटेरियल विश्व प्रसिद्ध हैं।

रेशम कीट पालन : सेरीक्ल्चर

रेशम (सिल्क) कीट पालन को सेरीकल्चर कहा जाता है। रेशम (सिल्क) कीट पालन सिल्क के रेशे प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

रेशम (सिल्क) की खोज का इतिहास

रेशम (सिल्क) की खोज के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं।

एक बार की बात है, चीन में हुआन-टी नाम के एक राजा थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि उनके बगीचे में लगे हुए शहतूत (मलबरी) के पत्ते लगातार कई वर्षों से खराब हो जाया करते थे। उन्होंने उनकी रानी सी-लुंग-ची को इसके कारणों का पता लगाने के लिए कहा।

एक लम्बे प्रेक्षण के बाद रानी ने पाया कि कई उजले रंग के कीट लगातार शहतूत के पत्तों को खा रहे थे। इसके साथ ही उन्होंने देखा कि ये उजले रंग के कीट एक प्रकार के कोशिका (कोकून) को भी बना रहे थे।

एक दिन जब रानी सी-लुंग-ची बगीचे में एक शहतूत के बृक्ष के नीचे चाय पी रही थीं कि अचानक एक कोशिका (कोकून) उनके कप, जो गर्म चाय से भरी थी, में गिर गया। थोड़ी ही देर में उस कोकून से एक धागा निकलने लगा। यही धागा सिल्क था।

इस प्रकार सिल्क की खोज भी कई अन्य खोजों की तरह अचानक हुयी।

सिल्क के खोज की सटीक तिथि का तो पता नहीं है, परंतु ऐसा कहा जाता है कि सिल्क की खोज चीन में लगभग 5000 से 8000 वर्ष पूर्व हुयी थी। चीनियों ने इस खोज, रेशम, को वर्षों तक दुनिया की नजरों से छिपाये रखा।

रेशम (सिल्क) का व्यापार और सिल्क रूट

बाद में लगभग 2000 ईoपूo यात्रियों और व्यापारियों द्वारा अन्य देशों में रेशम को ले जाया गया जिससे अन्य देशों का रेशम से परिचय हो सका।

रेशम (सिल्क) का व्यापार धीरे धीरे इतना बढ़ गया कि यूरोप और एशिया के बीच इस व्यापार के लिए उपयोग किये जाने वाले रास्ते सिल्क रूट कहा जाने लगा। आज भी वह रूट सिल्क रूट के नाम से जाना जाता है। रेशम (सिल्क) का व्यापार चीन के हान वंश के राज्य के समय, लगभग 207 ईoपूo से 220 ईसवी तक, बुलंदियों पर आ गया।

यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन‌) द्वारा जून 2014 चांगान-तियानशान गलियारा (सिल्क रूट) विश्व विरासत स्थल (World Heritage Site) घोषित कर दिया गया है। UNESCO, United Nations Educational Scientific and Cultural Organization का एक लघु रूप है जिसे हिंदी में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन‌ के नाम से जाना जाता है। यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र का एक निकाय है। यूनेस्को का उद्देश्य शिक्षा और संस्कृति के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देना है।

रेशम के कीट शहतूत के नये पत्तों को ही खाते हैं, तथा शहतूत के पेड़ केवल जापान और चीन में हुआ करते थे, अत: कई वर्षों तक रेशम का उत्पादन उन्ही देशों, अर्थात चीन और जापान में ही सीमित रहा था। बाद में रेशम के साथ साथ शहतूत को भी दूसरे देशों में उगाया जाने लगा। इस तरह पूर्वी एशिया के देशों तथा दुनिया के अन्य देशों का रेशम से परिचय चीन और जापान से ही हुआ।

रेशम (सिल्क) कीट का जीवन चक्र

* रेशम कीट की मादा अंडे देती हैं।

* लगभग 10 से 14 दिनों के बाद इन अंडों से लार्वा के रूप में बच्चे निकलते हैं। रेशम कीट के इन बच्चों को कैटरपिलर या झिल्ली या रेशम कीट कहा जाता है। कैटरपिलर शहतूत के पत्तों को लगातार खाते रहते हैं।

* लगभग 25 से 30 दिनों तक शहतूत के पत्तों को लगातार खाने के बाद, ये कैटरपिलर खाना छोड़ देते हैं, तथा उनके चारों ओर एक आवरण बुनना शुरू कर देते हैं।

रेशम कीट का जीवन चक्र क्लास सातवीं विज्ञान

* कैटरपिलर ये आवरण उनके स्वयं के लिए तैयार करते हैं जिसमें वे पूरी तरह ढ़क कर बंद हो जाते हैं ताकि वे रेशम के कीट में विकसित हो सकें। कैटरपिलर की इस अवस्था को प्यूपा या कोशित कहा जाता है। कैटरपिलर द्वारा रेशम के कीट में विकसित होने के लिए तैयार किये जाने वाले आवरण को कोकून कहा जाता है। इस कोकून में रहते हुए प्यूपा सिर को अंक 8 बनाते हुए एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले जाते हैं। इस क्रम में प्यूपा उनके सिर के भीतर अवस्थित ग्लैंड से एक प्रकार का प्रोटीन स्त्रावित करते हैं जो एक पतले तार के रूप में निकलता है।

* प्यूपा से सिर ने निकलने वाला एक अन्य स्त्राव हवा के सम्पर्क में आने पर सूख कर ठोस में बदल जाता है जो रेशम एक रेशों को को कठोर बना देता है।

* रेशम का कीट अर्थात कोकून के अंदर का प्यूपा लगभग एक किलोमीटर लम्बा रेशा बुनकर इसका एक आवरण बना कर पूरी तरह इसके अंदर बंद हो जाता है। इस प्रक्रिया में प्यूपा को लगभग दो से तीन दिनों का समय लगता है।

कोकून से सिल्क

रेशम कीट का पालन कोकून प्राप्त करने के लिए किया जाता है। कोकून को धूप में या वाष्प के ऊपर रखा जाता है या गर्म पानी में उबाला जाता है ताकि वह नर्म हो जाये और रेशम के रेशे प्राप्त किये जा सके।

रेशम कीट पालन : सेरीकल्चर

रेशम के मादा कीट एक बार में लगभग 300 से 500 अंडे देती हैं, इन अंडों को विशेष रूप से बनाये गये कागज पर संग्रहित किया जाता है। इन अंडों को उपयुक्त नमी, तापमान तथा स्वस्थ्य वातावरण में रखा जाता है ताकि अंडे सही तरीके के विकसित हो सकें।

लगभग 10 से 14 दिनों में अंडों से लार्वा निकलता है। रेशम के अंडों से निकले लार्वा को कैटरपिलर कहा जाता है। यह तब किया जाता है जब शहतूत (मलबरी) के पेड़ में नये पत्ते लगते हैं।

अंडों के कैटरपिलर में विकसित होने के बाद उन्हें बाँस के बने ट्रे में रखा जाता है। इसमें कैटरपिलर को शहतूत के पत्ते खिलाये जाते हैं। कैटरपिलर दिन रात शहतूत के पत्ते खाते रहते हैं।

लगभग 30 से 35 दिनों में ये खाना बंद कर देते हैं तथा अगली अवस्था में जाने के लिए विकसित हो जाते हैं। इस अवस्था को प्यूपा या कोशित अवस्था कहा जाता है, इस अवस्था में कैटरपिलर उनके चारों ओर एक महीन धागा बनाते हुए एक कोकून बनाते हैं जिसमें वे धीरे धीरे बंद हो जाते हैं।

प्यूपा सिर के पास की दो ग्रंथियों (ग्लैंड) से एक प्रकार का तरल पदार्थ निकालते हैं। कैटरपिलर के इन ग्रेंथियों को स्पिनरेट कहा जाता है, तथा तरल पदार्थ को सेरीसीन कहा जाता है। सेरीसीन रेशम के धागे पर एक आवरण बना देता है जो हवा के सम्पर्क में आकर सूखकर कठोर हो जाता है। सेरीसीन पानी में घुलनशील होता है।

दो से तीन दिनों के अंदर एक प्यूपा लगभग एक मील लम्बा रेशम का रेशा तैयार कर देता है तथा यह पूरी तरह से इस तरह बनाये हुए कोकून में बंद हो जाता है ताकि वह प्यूपा अगली अवस्था, रेशम के कीट में विकसित हो सके।

इस कोकून से रेशम के रेशे प्राप्त किये जाते हैं।

एक कोकून में इस्तेमाल किये जाने लायक रेशम के रेशे की मात्रा बहुत कम होती है। एक किलो रेशम के रेशे प्राप्त करने के लिए लगभग 3000 से 5500 रेशम के कीटों की अवश्यकता होती है। इस तरह से प्राप्त रेशम के रेशे को रेशम का कच्चा रेशा या कच्चा रेशमी रेशा कहा जाता है।

कोकून से रेशम को प्राप्त करना : रेशम की रीलिंग

रेशम के पालन करने वाले किसान कुछ कोकून को छोड़ देते हैं ताकि भविष्य में इनसे रेशम के कीटों की अगली नस्ल प्राप्त किया जा सके।

कोकून को गर्म पानी में या वाष्प के ऊपर या धूप में रखा जाता है। इससे सेरीसीन घुल जाता है तथा कोकून नरम हो जाता है। इसके बाद कोकून से रेशे को अलग कर लिया जाता है।

कोकून से रेशम के रेशे को विशेष मशीनों की सहायता से निकाला जाता है। कोकून से रेशम के रेशे निकालने की यह प्रक्रिया रेशम की रीलिंग कहलाती है। कोकून से रेशा निकालने के बाद उसकी कताई कर रेशम के धागे तैयार किये जाते हैं।

रेशम के धागे को बुन कर रेशम के वस्त्र तैयार किये जाते हैं। बुनाई का काम प्राय: मशीनों द्वारा ही किया जाता है। लेकिन बुनाई के मशीन के आविष्कार से पहले बुनाई का कार्य हस्त करघा द्वारा किया जाता था। यहाँ तक कि आज भी कई जगहों पर बुनाई का कार्य हाथों द्वारा ही किया जाता है।

रेशम के प्रकार

रेशम विभिन्न प्रकार के होते हैं। रेशम के प्रकार रेशम के कीटों की प्रजाति पर निर्भर करता है। रेशम के कीट की कई प्रजातियाँ पायी जाती है। विभिन्न प्रजातियों द्वारा तैयार किया गया रेशम के रेशे अलग अलग प्रकार के होते हैं।

बॉम्बिक्स मोरी (Bombyx Mori) रेशम के कीट की सामान्य तथा प्रचलित प्रजाति है। बॉम्बिक्स मोरी के कैटरपिलर (लार्वा) चूँकि शहतूत की पत्तियाँ ही खाते हैं, अत: इस प्रजाति को शहतूत रेशम कीट या मलबरी रेशम कीट भी कहा जाता है।

तसर रेशम, मूगा रेशम, कोसा रेशम, इरी रेशम, आदि रेशम की कुछ प्रचलित किस्म हैं।

शहतूत रेशम कीट से प्राप्त रेशम मृदु, चमकीले, लचीले, तथा काफी अच्छे होते हैं। रेशम के रेशों को कई तरह के आकर्षक रंगों में रंगा जा सकता है।

रेशम का उपयोग

रेशमी कपड़े का उपयोग कई तरह की पोशाकें बनाने के लिए किया जाता है, जैस साड़ी, सलवार कमीज, शर्ट, कुर्ता, टाई आदि।

रेशम कीट पालन भारत का एक बहुत ही पुराना व्यवसाय है। भारत चीन के बाद विश्व में रेशम का दूसरा सबसे उत्पादक है। खुदाई में मिले अवशेषों के आधार पर पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों को भी सिल्क उत्पादन के बारे में पता था।

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