रेशों से वस्त्र तक


सारांश: रेशे से वस्त्र तक

* रेशे एक प्रकार के सतत तंतु होते हैं। रेशे से धागा, रस्सी, कपड़ा, पर्दे, कम्बल, स्वेटर, तथा अन्य कई तरह के वस्त्र, आदि बनाये जा सकते हैं।

रेशे मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं। प्राकृतिक रेशा तथा कृत्रिम रेशा।

* पौधों या जानवरों (जंतुओं) से प्राप्त होने वाले रेशे को प्राकृतिक रेशा कहते हैं। तथा प्रयोगशालाओं में बनाये जाने वाले रेशे को प्राकृतिक रेशा कहते हैं। कपास, जूट, ऊन, रेशम आदि प्राकृतिक रेशा के उदाहरण हैं जबकि रेयॉन, टेरीलीन, नाइलॉन, आदि मानव निर्मित अर्थात कृत्रिम रेशों के उदाहरण हैं।

* जंतुओं से प्राप्त होने वाले रेशे जैसे कि ऊन और रेशम जटिल प्रोटीन से निर्मित होते हैं।

* ऊन तथा रेशम जांतव रेशे हैं।

* जानवर जो अत्यधिक ठंढ़ वाले ईलाके में पाये जाते हैं के शरीर पर बालों की मोटी परत होती हैं। बालों की यह परत उष्मारोधी का काम करती हैं। बालों की परतों के बीच खाली स्थानों में हवा के बुलबुले फंस जाते हैं जो कुचालक की तरह कार्य करते हैं, और शरीर की गर्मी को बाहर आने से तथा बाहर की ठंढ़क को अंदर जाने से रोकते हैं। इस तरह बालों की मोटी परतें अत्यधिक ठंढ़ वाले ईलाके में रहने वाले जानवरों की ठंढ़ से सुरक्षा करते हैं।

* अत्यधिक ठंढ़ वाले जगहों पर रहने वाले जानवरों के शरीर के बालों की मोटी परत से हमें ऊन प्राप्त होता है।

भेड़, बकरी, लामा, अलपाका, ऊँट, खरगोश, आदि जानवरों के बाल से ऊन प्राप्त किया जाता है।

* भेड़ तथा ऊन देने वाले अन्य जानवर के शरीर पर पाये जाने वालों की मोटी परत को ऊन का रेशा कहा जाता है। इसे अंग्रेजी में फ्लीस कहते हैं।

* प्राचीन समय में लोग ऊन के बारे में नहीं जानते थे। ऐसा कहा जाता है कि 8000 ईoपूo से 5000 ईoपूo के आसपास लोगों ने ऊन का उपयोग शुरू किया था।

* भेड़ के शरीर पर दो प्रकार के बाल पाये जाते हैं। एक दाढ़ी के कड़े बाल तथा दूसरा शरीर की त्वचा के निकट के मुलायम बाल।

* भेड़ के शरीर की त्वचा के निकट पाये जाने वाले मुलायम बाल ही ऊन के लिए उपयुक्त होते हैं।

* पूरी दुनिया में भेड़ों की लगभग 100 से अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

* कश्मीरी बकरी: भारत में कश्मीरी बकरी मुख्य रूप से लद्दाख तथा कश्मीर के कुछ पहाड़ी ईलाके में पायी जाती है। कश्मीरी बकरी को चांगथांगी बकरी भी कहा जाता है।

* कश्मीरी बकरी से मिलने वाले ऊन को पश्मीना ऊन कहा जाता है। पश्मीना ऊन से बनने वाले शॉल को पश्मीना शॉल के नाम से जाना जाता है।

* "पश्मीना" शब्द फारसी के "पश्म" शब्द से आया है जिसका हिंदी में अर्थ ऊन होता है। ऐसा माना जाता है कि कश्मीरी बकरी मुख्य रूप से तुर्की से आयी हुयी प्रजाति है।

* मेरीनो नामक प्रजाति का भेड़ काफी अच्छे तथा उच्च गुणवत्ता वाला ऊन प्रदान करने के लिए जाना जाता है। मेरीनो भेड़ मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमरीका तथा ऑस्ट्रेलिया में पाये जाते हैं।

* अंगोरा नामक प्रजाति की बकरी भी अच्छे गुणवत्ता वाले ऊन देने के लिए प्रसिद्ध है।

* अंगोरा बकरी भी मुख्य रूप से तुर्की से आयी हुई एक प्रजाति मानी जाती है।

* अंगोरा बकरी से मिलने वाले ऊन को मोहर या मोहायर तथा पश्मीना भी कहा जाता है।

* अंगोरा बकरी के ऊन से बनने वाले शॉल को भी पश्मीना शॉल कहा जाता है।

* भारत में अंगोरा बकरी कश्मीर और लद्दाख में पायी जाती है।

* अंगोरा बकरी तिब्बत में भी पायी जाती है।

* अंगोरा नामक प्रजाति के खरगोश से भी ऊन प्राप्त किया जाता है।

भारत में पायी जाने वाले भेड़ों की कुछ प्रजातियाँ
प्रजातिऊन की गुणवत्ताराज्य जिनमें ये पाये जाते हैं
लोहीअच्छी गुणवत्ताराजस्थान, पंजाब
रामपुर बुशायरभूरी ऊनउत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
नाली या नलीगलीचे की ऊन राजस्थान, हरियाणा, पंजाब
बाखरवालऊनी शॉलों के लिए ऊन जम्मू और कश्मीर
मारवाड़ीमोटी ऊन गुजरात
पाटनवाड़ीहोजरी के लिए ऊन गुजरात
श्रोत: एनसीईआरटी विज्ञान पाठ्य पुस्तक क्लास सातवीं पेज नम्बर 27

* भेड़ पालन मुख्य रूप से ऊन प्राप्त करने के लिए किया जाता है। परंतु भेड़ से दूध के साथ साथ माँस भी मिलता है।

* भेड़ के शरीर पर पाये जाने वाले रेशे को काटने के बाद विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा ऊन प्राप्त किया जाता है।

* भेड़ पालन पशुपालन की श्रेणी में आता है।

* भेड़ पालन भारत के पहाड़ी ईलाकों में किया जाता है जैसे कि जम्मू और काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरूणाचल प्रदेश, तथा सिक्किम आदि। इसके अलावे भारत के कई मैदानी भागों में भी भेड़ का पालन किया जाता है। जैसे कि हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, और गुजरात आदि।

* भेड़ शाकाहारी होते हैं।

* गड़ेरिये (भेड़ के चरवाहे) भेड़ों को सामान्य दिनों में मैदानों और जंगलों में चराने के लिए ले जाया करते हैं। लेकिन अत्यधिक ठंढ़ वाले दिनों में भेड़ों को प्राय: घरों में ही रखकर अनाज, पत्तियाँ आदि खिलाया जाता है।

* सभी प्रजातियों के भेड़ से प्राप्त होने वाला ऊन अच्छी गुणवत्ता वाला नहीं होता है। भेड़ों से अच्छी गुणवत्ता वाला ऊन प्राप्त करने के लिए उनके प्रजनन के क्रम में कम से कम एक भेड़, नर या मादा को अच्छे ऊन देने प्रजाति का चुना जाता है, ताकि पैदा होने वाले भेड़ अच्छे गुणवत्ता के ऊन देने वाले हो सकें। प्रजनन की इस प्रक्रिया को वरणात्मक प्रजनन कहा जाता है।

* भेडों के शरीरे से ऊन के रेशे काटने तथा उनसे तैयार उत्पाद प्राप्त करना की प्रक्रिया कई चरणों में सम्पन्न की जाती है। ये चरण हैं ऊन की कटाई, ऊन की धुलाई, ऊन की छँटाई, ऊन की रंगाई, तथा ऊन की कताई।

* ऊन की कटाई : चरण (I) : भेड़ों के शरीर से ऊन के रेशे को काटने के कार्य को ऊन की कटाई कहा जाता है। इसे अंग्रेजी में स्करिंग कहा जाता है।

* भेड़ों के शरीर से ऊन की कटाई विशेष प्रकार के ब्लेड से किया जाता है। आजकल ऊन की कटाई का कार्य मशीनों द्वारा किया जाता है।

* भेड़ों के शरीर से ऊन की कटाई का कार्य प्राय: गर्मियों के मौसम में किया जाता है ताकि बिना बाल के भी भेड़ गर्मियों के मौसम के कारण आसानी से जीवित रह सकें।

* जाड़ा आते आते भेड़ों के शरीर पर पुन: नये बाल उग आते हैं।

* भेड़ों के शरीर से ऊन की कटाई करने में भेड़ों कोई दर्द नहीं होता है। यह किसी मनुष्य के दाढ़ी के या सर के बाल काटने जैसा ही है।

* अभिमार्जन : चरण (II): ऊन की कटाई के बाद ऊन की धुलाई की जाती है। ऊन की धुलाई गर्म पानी में कुछ विशेष प्रकार के रसायन मिलाकर किया जाता है। ऊन की धुलाई की क्रिया को अभिमार्जन कहा जाता है। इस प्रक्रिया को अंग्रेजी में स्करिंग कहा जाता है।

* छँटाई: चरण (III): ऊन की धुलाई के बाद विभिन्न रंगों तथा गठन के अनुसार ऊन की छँटाई की जाती है।

* चरण (IV): ऊन की छँटाई के बाद ऊन में से छोटे छोटे फूले हुए टुकड़ों जिन्हें बर कहा जाता है, को अलग कर दिया जाता है। ये बर स्वेटरों में बन जाने वाले छोटे छोटे ऊभरे हुए दानों जैसे होते हैं।

* छँटाई के बाद ऊन की पुन: धुलाई (अभिमार्जन) की जाती है, ताकि ऊन के रेशों की सभी गंदगी निकल जायें।

* रँगाई: चरण (V): छँटाई के बाद ऊन के रेशों को वाँछित रंगों में रँगा जाता है। क्योंकि मूल रूप से प्राप्त होने वाले ऊन के रेशे प्राकृतिक रूप से ऊजले, भूरे तथा काले रंगों के होते हैं।

* चरण (VI): रंगाई के बाद ऊन के रेशों सुलझा कर सीधा किया जाता है। ऊन को सुलझाने का कार्य विशेष प्रकार के बने कंघों से किया जाता है।

* ऊन के रेशों को सीधा करने के बाद उसे कात कर धागा तैयार किया जाता है। जिससे विभिन्न प्रकार की पोशाकें, कम्बल, स्वेटर, मोजे आदि बनाये जाते हैं।

* रेशम : रेशम एक जांतव रेशा है जिसे रेशम के कीट से प्राप्त किया जाता है।

* रेशम कीट पालन (सेरीकल्चर) : रेशम के कीटों को पालना तथा उनसे रेशम प्राप्त किया जाना रेशम कीट पालन कहलाता है। रेशम कीट पालन को अंग्रेजी में सेरीकल्चर कहा जाता है।

* रेशम की खोज : रेशम की खोज चीन में हुयी थी। ऐसा कहा जाता है कि एक बार रेशम कीट का कोकून एक गर्म चाय की प्याली में गिर गया था, जिससे थोड़ी ही देर में रेशम के धागे निकलने लगे। इस तरह रेशम की खोज अचानक से हो गयी।

रेशम की खोज के बाद चीनियों ने इसे कई वर्षों तक गुप्त रखा। लेकिन बाद में व्यापारियों तथा यात्रियों द्वारा दूसरे देशों में रेशम को ले जाया गया तथा दुनिया को रेशम के बारे में पता चला।

* सिल्क रूट : रेशम का व्यापार धीरे धीरे काफी बड़े पैमाने पर किया जाने लगा। रेशम का व्यापार काफी आमदनी देने वाला था। यह इतना प्रचलित हो गया कि जिस रूट द्वारा रेशम के व्यापार के लिये व्यापारी आया जाया करते थे उसे सिल्क रूट के नाम से जाना जाने लगा।

* यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन‌) द्वारा जून 2014 चांगान-तियानशान गलियारा (सिल्क रूट) विश्व विरासत स्थल (World Heritage Site) घोषित कर दिया गया है। यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र का एक निकाय है। यूनेस्को का उद्देश्य शिक्षा और संस्कृति के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देना है।

* रेशम कीट का जीवन चक्र: रेशम कीट ⇒ अंडे ⇒ लार्वा (कैटरपिलर) ⇒ कोकून ⇒ रेशम कीट

* कोकून से रेशम : रेशम के कीट से प्राप्त होने वाले कोकून को गर्म पानी में भिगो कर रखा जाता है या धूप में रखा जाता है जिससे कोकून मुलायम हो जाता है तथा रेशम के धागे को अलग कर लिया जाता है।

* 1 किलोग्राम रेशम के रेशे प्राप्त करने के लिए लगभग 3000 से 5500 कोकून की आवश्यकता होती है।

* कोकून से निकले हुए रेशम को कच्चा रेशम कहा जाता है।

* रेशम की रीलिंग : कोकून से रेशम को अलग करने की प्रक्रिया को रेशम की रीलिंग कहा जाता है।

* रेशम के प्रकार : रेशम के प्रकार अर्थात उसका गठन और टेक्सचर रेशम कीट की प्रजाति पर निर्भर करता है। रेशम कीट की कई प्रजातियाँ होती हैं। रेशम कीट की अलग अलग प्रजातियों से अलग अलग प्रकार के रेशम प्राप्त होते हैं।

* बॉम्बिक्स मोरी सबसे प्रचलित रेशम कीट की प्रजाति है। बॉमिक्स मोरी के कैटरपिलर चूँकि शहतूत के पत्ते ही खाते हैं, इसलिए इसे शहतूत रेशम कीट के नाम से भी जाना जाता है।

* तसर रेशम, मूगा रेशम, कोशा रेशम, इरी रेशम, आदि रेशम के विभिन्न प्रकारों के कुछ उदाहरण हैं।

* शहतूत रेशम कीट (बॉम्बिक्स मोरी) से प्राप्त होने वाला रेशम काफी लचीला, चमकीला और अच्छी गुणवत्ता वाला होता है।

* रेशम को कई वांछित रंगों में भी रंगा जाता है ताकि विभिन्न रंगों के धागे और वस्त्र तैयार किये जा सकें।

* रेशम का उपयोग: रेशम का उपयोग कई प्रकार के वस्त्र, धागे, टाई आदि बनाने में किया जाता है।

* रेशम कीट पालन भारत का एक बहुत ही प्राचीन व्यवसाय है।

* चीन के बाद भारत रेशम उत्पादन सबसे बड़ा देश है।

* प्राप्त साक्ष्यों से ऐसा पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों को भी रेशम की जानकारी थी।

7-science-home(Hindi)

7-science-English


Reference: