फसल उत्पादन एवं प्रबंध

आठवीं विज्ञान

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फसल उत्पादन एवं प्रबंध का सारांश

(1) किसी स्थान पर बड़े पैमाने पर जब एक ही किस्म के पौधों उगाये जाते हैं, तो वह फसल कहलाते हैं। जैसे धान, गेहूँ, मटर, चना, मक्के आदि के फसल।

(2) फसलों को उनके उगाए जाने वाले ऋतु के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जाता है, ये वर्ग हैं रबी तथा खरीफ।

रबी को जाड़े के मौसम में उगाया जाता है। गेहूँ, मटर, चना आदि का फसल रबी फसल की श्रेणी में आते हैं, चूँकि इन फसलों कम नमी तथा ताप की आवश्यकता होती है अत: इन्हें जाड़े में उगाया जाता है।

खरीफ को बर्षा ऋतु में उगाया जाता है। धान, मक्का आदि खरीफ फसल की श्रेणी में आते हैं। चूँकि इन फसलों को अधिक जल तथा तापमान की आवश्यकता होती है, अत: इन्हें बर्षा ऋतु में उगाया जाता है।

(3) कृषि पद्धतियाँ: फसल को उगाने से लेकर तैयार करने और भंडारण तक किये जाने वाले कार्य को फसल पद्धतियाँ कहते हैं। चूँकि ये कार्य सभी प्रकार के फसलों के लिए किए जाते हैं, अत: इन्हें आधारिक कृषि पद्धतियाँ या आधारिक फसल पद्धतियाँ कहलाती हैं। मिट्टी तैयार करना, बुवाई, खाद एवं उर्वरक देना, सिंचाई, खरपतवार से सुरक्षा, कटाई तथा भण्डारण कृषि पद्धतियाँ की चरणवार प्रक्रियाएँ हैं।

(4) फसल उगाने के लिए पहली प्रक्रिया मिट्टी तैयार करना है। मिट्टी तैयार करने के लिए खेत की जुताई की जाती है। इस प्रक्रिया में मिट्टी को उलटा पलटा जाता है तथा उसे बराबर किया जाता है। खेत को जोतने से मिट्टी ढ़ीली तथा भुरभुरी हो जाती है।

मिट्टी को भुरभुरी कर देने से फसल के पौधों की जड़ें आसानी से गहराई तक जा पाती हैं तथा श्वसन कर पाती हैं।

जुताई में अवांछनीय पौधे जैसे कि खर पतवार आदि जड़ से उखड़ जाते हैं। जड़ से उखड़ जाने के कारण ये पौधे धूप में सूख जाते हैं।

(5) मिट्टी की जुताई में हल, जो लोहे का एक प्रकार का यंत्र होता है का उपयोग किया जाता है। हल को बैलों या ट्रैक्टर की मदद से चलाया जाता है।

(6) कम तथा छोटे खेतों की मिट्टी को खोदने तथा पलटने के लिए कुदाली का उपयोग किया जाता है। कुदाली लोहे का बना एक ब्लेड होता है जिसमें लकड़ी या लोहे का हैंडल लगा होता है।

(7) कल्टीवेटर कई ब्लेड लगा हुआ लोहे का एक यंत्र होता है। कल्टीवेटर को टैक्टर से जोड़कर इसका उपयोग खेत की जुताई के लिए किया जाता है।

(8) मिट्टी में बीजों का प्रत्यारोपण की प्रक्रिया बुवाई कहलाती है।

(9) बुवाई में बीजों को पर्याप्त दूरी तथा एक लाइन में लगाया जाना चाहिए। बीजों के बीच में पर्याप्त दूरी नहीं होने पर उगने वाले पौधों को पर्याप्त सूर्य का प्रकाश एवं पोषण नहीं मिल पाता है।

(10) बीजों को हाथ से छींटकर या मशीन की मदद से बुवाई की जाती है।

(11) बुवाई के बाद अच्छी पैदावर के लिए मिट्टी में खाद या उर्वरक मिलाया जाता है। उर्वरक का उपयोग खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए की जाती है।

(12) मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाने वाला रासायनिक पदार्थ को प्राय: उर्वरक कहा जाता है। यूरिया, सुपर फॉस्फेट, अमोनियम सल्फेट, पोटाश आदि उर्वरक के कुछ उदाहरण है।

(13) प्राकृतिक रूप से तैयार किया गया पदार्थ जो खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है को प्राय: खाद कहा जाता है। खाद पौधों तथा जंतुओं के अपशिष्ट से प्राप्त होता है। कम्पोस्ट तथा बर्मी कम्पोस्ट खाद का उदाहरण है।

(14) खेतों की उर्वरा शक्ति दो फसलों की बीच खेत को खाली छोड़ देने से भी बढ़ता है।

(15) एक फसल के बाद दूसरी फसल का एकांतर क्रम में उगाया जाना फसल चक्रण कहलाता है।

(16) मिट्टी में प्राकृतिक रूप से नाइट्रोजन का पुन: भरपाई नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहलाता है। फलीदार तथा दाल के पौधों को नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले पौधों के नाम से जाना जाता है। फलीदार तथा दाल के फसलों को उगाये जाने के बाद दूसरे फसल को उगाने पर प्राय: उर्वरक या खाद देने की आवश्यकता नहीं होती है। फसल चक्रण का यह एक महत्वपूर्ण तरीका है।

(17) मिट्टी में पाया जाने वाला राइजोबियम नाम का बैक्टीरिया नाइट्रोजन स्थिरीकरण करता है।

(18) सहजीवी संबंध: दो जीवों का एक साथ रहकर जीवित रहने के लिए एक दूसरे की मदद करना सहजीवी संबंध कहलाता है।

राइजोबियम अपना भोजन स्वयं नहीं बना पाता है। राइजोबियम हवा से नाइट्रोजन अवशोषित कर उन्हें घुलनशील रूप में मिट्टी में छोड़ देता है। पौधे इस घुलनशील नाइट्रोजन को जड़ों द्वारा अवशोषित कर लेते हैं।

नाइट्रोजन फलीदार फसल तथा दाल के फसल की जड़ों में राइजोबियम नामक बैक्टीरिया पाया जाता है। राइजोबियम फलीदार तथा दाल के फसलों को नाइट्रोजन प्रदान करता है बदले में ये फसल राइजोबियम नामक बैक्टीरिया को आवास एवं भोजन प्रदान करते हैं।

प्राकृतिक में दो जीवों के इस तरह के संबंध को सहजीवी संबंध कहते हैं, जिसमें जीव एक दूसरे की आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति करते हैं।

राइजोबियम नाम के बैक्टीरिया का फलीदार तथा दाल के फसलों के साथ रहकर मिट्टी में नाइट्रोजन के आवश्यक स्तर को बनाये रखने की प्रक्रिया को नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कहते हैं।

फलीदार तथा दाल के पौधों को नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले पौधों के नाम से जाना जाता है।

फलीदार तथा दाल के फसलों को उगाये जाने के बाद दूसरे फसल को उगाने पर प्राय: उर्वरक या खाद देने की आवश्यकता नहीं होती है। फसल चक्रण का यह एक महत्वपूर्ण तरीका है।

(19) समय समय आवश्यकता के अनुसार खेतों में जल [पानी (वाटर)] देने की प्रक्रिया सिंचाई कहलाती है। सिंचाई को अंग्रेजी में इरिगेशन (Irrigation) कहा जाता है।

सभी सजीव को जल की आवश्यकता होती है। चूँकि पौधे भी सजीव हैं अत: उन्हें भी जीवित रहने के लिए जल की आवश्यकता होती है।

(20) बर्षा, नदी, झील, तालाब, नहर, कुएँ, नलकूप इत्यादि सिंचाई के श्रोत हैं। नदियाँ, झील आदि सिंचाई के प्राकृतिक तथा नहर, कुएँ, नलकूप इत्यादि सिंचाई के कृत्रिम श्रोत हैं।

(21) सिंचाई के पारंपरिक तरीके

(क) मोट (घिरनी), रहट, चेन पम्प, ढ़ेकली आदि सिंचाई के कुछ पारंपरिक तरीके हैं।

(ख) मोट (घिरनी) : कुँए से एक रस्सी तथा घिरनी की मदद से जल की निकासी कर खेतों में पहुँचाया जाता है। इस विधि को मोट (घिरनी) कहा जाता है।

(ग) चेन पम्प: चेन पम्प में एक बड़ी घिरनी पर रस्सी या चेन की सहायता से कुँए या झील आदि से जल की निकासी की जाती है। चेन पम्प को मनुष्य या मवेशी या दोनों की मदद से चलाया जाता है।

(घ) रहट: रहट प्राय: मवेशी यथा बैल या भैंस या अन्य मवेशी की मदद से चलाया जाता है। रहट का उपयोग कर कुँए या बड़े गड्ढ़े से जल की निकासी कर खेतों तक पहुँचाया जाता है।

(च) ढ़ेकली: ढ़ेकली की मदद से छोटे गड्ढ़ों, नदियों या तालाब से जल की निकासी की जाती है तथा छोटी छोटी नालियों द्वारा खेतों तक पहुँचाया जाता है। ढ़ेकली को मनुष्य द्वारा चलाया जाता है। ढ़ेकली को बहुत सारे क्षेत्र में किरान भी कहा जाता है।

(छ) मोटर पम्प, छिड़काव तंत्र, ड्रिप तंत्र आदि का उपयोग सिंचाई के आधुनिक तरीकों में आता है।

(च) मोटर पम्प: मोटर पम्प को प्राय: कुँए, नलकूप आदि में स्थापित किया जाता है। मोटर पम्प को बिजली या डीजल ईंजन से चलाया जाता है। मोटर पम्प की मदद से कम समय, मेहनत तथा लागत में अधिक भूमि की सिंचाई की जाती है।

(छ) छिड़काव तंत्र: छिड़काव तंत्र को अंग्रेजी में स्प्रिंकल सिस्टम (Sprinkler System) कहा जाता है।

छिड़काव तंत्र में मोटर पम्प तथा पाइप की मदद से जल को खेतों तक पहुँचाया जाता है। इस छिड़काव तंत्र की विधि में जल की बचत के साथ साथ अधिक दूरी तक जल को पहुँचाया जाता है। छिड़काव तंत्र का उपयोग प्राय: असमतल तथा बलूही भूमि में सिंचाई के लिए किया जाता है जहाँ नालियों की मदद से जल को पहुँचाना संभव नहीं होता है।

(ज) ड्रिप तंत्र : ड्रिप तंत्र को अंग्रेजी में ड्रिप सिस्टम (Drip System) कहा जाता है। ड्रिप तंत्र में जल को मोटर पम्प की मदद से पाइपों में भेजा जाता है। इस ड्रिप तंत्र की विधि में जल बूँद बूँद कर पौधों पर गिरता है। फलदार पौधे, बगीचे आदि के लिए ड्रिप तंत्र से सिंचाई किया जाना अत्यंत ही उपयोगी है। इस ड्रिप तंत्र से सिंचाई में जल की बर्बादी बिल्कुल नहीं होती है।

(22) खेतों में उगने वाले अवांछनीय पौधे खरपतवार कहलाते हैं।

(23) खरपतवार को खेतों से हाटाया जाना आवश्यक होता है। खेतों में खरपतवार रहने पर ये मुख्य फसल के पौधों को मिलने वाले पोषक तत्वों को लेने लगते हैं, जिससे मुख्य फसल कमजोर हो सकता है।

(24) खरपतवार को खेतों से हटाया जाना निराई कहलाता है। खुरपी आदि की मदद से खेतों से खरपतवार को हटाया जाता है।

(25) खरपतवार को हटाने के लिए उपयोग किये जाने वाले रसायन को खरपतवारनाशी कहा जाता है। 2, 4 D इथाइल इस्टर, नीम का अर्क, ग्लाईफॉस्फेट आदि कुछ प्रचलित खरपतवार नाशी हैं। खरपतवार नाशी को अंग्रेजी में वीडिसाइड्स (Weedicides) कहा जाता है।

(26) फसल तैयार हो जाने पर फसल को काटने की प्रक्रिया कटाई कहलाती है।

(27) कटाई के बाद फसल से दाने और भूसे को अलग किया जाता है। फसल से दाने तथा भूसे को अलग करने की प्रक्रिया को थ्रेसिंग (Threshing) कहा जाता है।

छोटे किसान अनाज के दानों को फटक कर अलग करते हैं। दानों को भूसे से अलग करना विनोईंग (Winowing) कहा जाता है।

(28) फसल को तैयार होने में लगभग तीन से चार महीने लगते हैं। तीन चार महीनों के मेहनत के बाद फसल की कटाई का समय आना किसानों के लिए पर्व का माहौल होता है। फसल तैयार होने के बाद किसान पर्व मनाते हैं। होली, पोंगल, वैसाखी, दीवाली नबान्या एवं बिहू आदि कटाई ऋतु के साथ जुड़े हुए कुछ पर्व हैं।

(29) फसल के दानों को अधिक समय तक सुरक्षित रखने की प्रक्रिया भण्डारण कहलाती है। छोटे किसान फसल के दानों को ड्रम, कोठ, बोरे आदि में सुरक्षित रखते हैं। जबकि बृहत पैमाने पर फसल के दानों को भण्डारगृहों में सुरक्षित रखा जाता है।

छोटे स्तर पर फसल के दानों को भण्डारण करने से पूर्व उसमें नीम के पत्तों को सुखाकर भी मिलाया जाता है। बड़े भण्डारगृहों में अनाज के दानों को सुरक्षित रखने में कीटनाशी का प्रयोग किया जाता है।

(30) बहुत सारा खाद्य पदार्थ हमें जंतुओं से प्राप्त होता है। जैसे दूध, दही, मिठाइयाँ, घी, पनीर, माँस, अण्डे आदि। इसके लिए पशुओं का पालन किया जाता है।

पालतू पशुओं का बड़े पैमाने पर पालन तथा देखभाग पशुपालन कहलाता है।

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