जैव प्रक्रम - क्लास दसवीं विज्ञान

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श्वसन (Respiration)

श्वसन जैव प्रक्रम के अंतर्गत आने वाली एक प्रक्रिया है। श्वसन शब्द के आते ही भ्रम पैदा हो जाता है। क्योंकि श्वसन दो तरह का होता है

(a) श्वसन तथा (b) कोशिकीय श्वसन

यदि केवल श्वसन कहा जाता है तो इसका अर्थ होता है श्वास लेना तथा छोड़ना। यह यह शरीर विज्ञान के अंतर्गत आने वाली एक प्रक्रिया है। इस श्वसन की प्रक्रिया के अंतर्गत गैसों का आदान प्रदान होता है। इसमें ऑक्सीजन शरीर के अंदर जाता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकलता है। जब हम श्वास लेते हैं, तो इसमें ऑक्सीजन को नाक के द्वारा अंदर खींचते हैं तथा कार्बन डायऑक्साइड बाहर छोड़ते हैं।

जबकि कोशिकीय श्वसन, जिसे भी केवल श्वसन भी कहा जाता है, एक चपाचपयी [metabolic(मेटाबॉलिक)] प्रतिक्रिया तथा प्रक्रिया (Metabolic reaction and process) है। यह प्रक्रिया (कोशिकीय श्वसन) जीवों की कोशिका के अंदर होती है, जिसमें पोषक तत्वों का उपयोग उर्जा ( अर्थात जैव रासायनिक उर्जा) प्राप्त करने में किया जाता है।

अत: श्वसन (Respiration) तथा कोशिकीय श्वसन (Cellular respiration) को समझने में भ्रम नहीं होना चाहिए। प्राय: भ्रम इसलिए उत्पन्न हो जाता है, कि दोनों ही प्रक्रियाओं को श्वसन से ही संबोधित किया जाता है। हालाँकि जंतुओं में कोशिकीय श्वसन (CELLULAR RESPIRATION) के लिये श्वसन (श्वास लेना) आवश्यक है।

यहाँ श्वसन से तात्पर्य है कोशिकीय श्वसन।

श्वसन अर्थात कोशिकीय श्वसन की परिभाषा

प्रक्रिया जिसके अंतर्गत जीव पोषक तत्वों (nutrients) से उर्जा (energy) प्राप्त करते हैं, श्वसन (RESPIRATION) कहलाता है।

श्वसन की प्रक्रिया कोशिका (CELL) के अंदर होती है। इस प्रक्रिया में एक रासायनिक प्रतिक्रिया (Chemical reaction) होती है, जिसमें जीवों द्वारा प्राप्त पोषक तत्वों से जैव रासायनिक उर्जा (उर्जा) [biochemical energy] प्राप्त किया जाता है। इस प्रतिक्रिया में कार्बोहाइड्रेट, जो भोजन से प्राप्त होता है, का ऑक्सीकरण होता है, जिससे उर्जा प्राप्त होती है। इस प्राप्त उर्जा का उपयोग विभिन्न जैव प्रक्रमों (Life processes) को सम्पन्न करने में होता है।

श्वसन की प्रक्रिया दो चरणों में सम्पन्न होती

(a) पहले चरण में ग्लूकोज का विघटन पायरूवेट अम्ल में होता है। ग्लूकोज के अणु में कार्बन के छ: परमाणु होते हैं तथा पायरूवेट अम्ल में कार्बन के तीन परमाणु होते हैं। ग्लूकोज का विघटन कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) में होता है।

(b) दूसरे चरण में पायरूवेट अम्ल का विघटन कार्बन डायऑक्साइड तथा ईथेनॉल या लैक्टिक अम्ल में हो सकता है, जो वायु की अनुपस्थिति में होता है। यह प्रक्रम किण्वन के समय यीस्ट में होता है।

या पायरूवेट का विघटन यह प्रक्रिया वायु की अनुपस्थिति में होता है। इस प्रक्रिया में पायरूवेट अम्ल विघटित होकर कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल बनाता है।

पायरूवेट का विघटन उष्माक्षेपी (Exothermic) है। अत: इसमें उर्जा निकलती है। तथा इससे प्राप्त उर्जा ATP (Adenosine triphosphate) के रूप में संरक्षित हो जाती है, जिसे आवश्यकतानुसार छोड़ा जाता है। श्वसन का यह प्रक्रम माइटोकॉन्ड्रिया में संपन्न होता है। चूँकि माइटोकॉन्ड्रिया, जो कोशिका (cell) के अंदर होती है, तथा इससे उर्जा प्राप्त होती है, अत: इसे कोशिका का उर्जा घर (पावर हाऊस) [Power house of cell] कहा जाता है।

भिन्न जीवों में श्वसन की प्रक्रिया भिन्न तरह से सम्पन्न होती हैं। श्वसन की प्रक्रिया में ऑक्सीजन की उपस्थिति के आधार पर इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है:

(a) अवायवीय शवसन (Anaerobic Respiration)

(b) वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration)

(a) अवायवीय शवसन (Anaerobic Respiration)

ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होने वाला श्वसन अवायवीय श्वसन (Anaerobic Respiration) कहलाता है। यह प्रक्रिया किण्वन के समय यीस्ट में होता है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में पायरूवेट अम्ल के विघटन के बाद कार्बन डाइऑक्साइड के साथ साथ इथेनॉल की जगह लैक्टिक एसिट भी बनता है। लैक्टिक अम्ल का बनना परिस्थिति विशेष पर निर्भर करता है।

(b) वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration)

वायु अर्थात ऑक्सीजन की उपस्थिति में होने वाला श्वसन वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration) कहलाता है। वायु की उपस्थिति में होने वाले श्वसन की प्रक्रिया में पायरूवेट अम्ल विघटित होकर कार्बन डायऑक्साइड तथा जल बनाता है। वायु की उपस्थिति में होने वाले श्वसन की प्रक्रिया में अधिक उर्जा प्राप्त होती है।

हमारे शरीर में होने वाला श्वसन, वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration) है।

भिन्न पथों द्वारा ग्लूकोज का विघटन
Fig:1. भिन्न पथों द्वारा ग्लूकोज का विघटन 1

पैर के मांशपेशियों में दर्द या ऐंठन

कभी कभी अधिक भाग दौड़ या दौड़ने पर हमारी पेशी कोशिकाओं में ऑक्सीजन का आभाव हो जाता है। इस स्थिति में उर्जा प्राप्ति के लिये पायरूवेट अम्ल का विखंडन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है, तथा कार्बन डाइऑक्साइड के साथ लैक्टिक अम्ल का निर्माण होता है। लैक्टिक अम्ल के कारण हमारी पेशियों में दर्द या क्रैंप होने लगता है। आराम करने या मालिश करने पर लैक्टिक अम्ल विघटित होकर ईथेनॉल तथा जल में परिवर्तित हो जाता है, जिससे पेशियों में होनेवाले दर्द या ऐंठन खत्म हो जाता है, तथा आराम मिलता है।

गैसों का आदान प्रदान (Exchange of Gases)

चूँकि वायवीय श्वसन के लिये ऑक्सीजन के उपस्थिति की अनिवार्य है, अत: वायवीय जीवों (aerobic organism) को यह सुनिश्चित करने की आवश्यक्ता है कि पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन ग्रहण की जा रही है।

पादपों (पेड़ पौधों) में गैसों का आदान प्रदान

पौधों में गैस का आदान प्रदान रंध्र छिद्र के द्वारा होता है और अंतर्कोशिकीय अवकाश (Large inter cellular space) यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी कोशिकाएँ वायु के संपर्क में हों। यहाँ कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऑक्सीजन का आदान प्रदान विसरण द्वारा होता है। ये कोशिकाओं में या उससे दूर बाहर वायु में जा सकती हैं।

विसरण की दिशा पर्यावरणीय अवस्थाओं तथा पौधों की आवश्यकता पर निर्भर करती है। रात्रि में, जब कोई प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं हो रही होती है तो कार्बन डाईऑक्साइड का निष्कासन ही मुख्य आदान प्रदान क्रिया होती है। दिन में, श्वसन के दौरान निकली कार्बन डाईऑक्साइड प्रकाशसंश्लेषण में प्रयुक्त हो जाती है अत: कोई कार्बन डाईऑक्साइड नहीं निकलती है। इस समय अर्थात, दिन में प्रकाश संश्लेषण में प्राप्त ऑक्सीजन का निकलना ही मुख्य है।

जंतुओं में गैसों का आदान प्रदान

जंतुओं में पर्यावरण से ऑक्सीजन लेने और श्वसन की प्रक्रिया के द्वारा उत्पादित कार्बन डाईऑक्साइड से छुटकारा पाने के लिए, अर्थात बाहर निकालने के लिए विभिन्न अंगों का विकास हुआ। जैसे स्थलीय जीवों में श्वास लेने के लिये फेफड़े [फुफ्फुस (Lung)] का विकास हुआ है, जैसे मनुष्य, हाथी, घोड़े, कुत्ते आदि फेफड़े की मदद से ऑक्सीजन लेते हैं तथा कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते हैं। जलीय जीवों में गलफड़ या क्लोम (Gill) क़ा विकास हुआ जिसकी मदद से वे गैसों का आदान प्रदान करते हैं, अर्था श्वास लेते हैं तथा छोड़ते हैं।

जलीय जंतुओं में गैस का आदान प्रदान

जलीय जीव श्वास लेने के लिये जल में विलेय ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं। इसके लिये जलीय जीवों में गलफड़ [क्लोम (Gill)] का विकास हुआ है, जिसकी मदद से वे श्वास लेती हैं। चूँकि जल में विलेय ऑक्सीजन की मात्रा वायु में उपस्थित ऑक्सीजन की मात्रा की तुलना में कम होती है, अत: जलीय जीवों की श्वास दर स्थलीय जीवों की अपेक्षा द्रुत होती है। मछली, जो एक जलीय जीव है, अपने मुँह के द्वारा जल लेती है तथा बलपूर्वक इसे गलफड़ [क्लोम (Gill)] तक पहुँचाती है जहाँ विलेय ऑक्सीजन रूधिर (Blood) में अवशोषित हो जाता है।

स्थलीय जीवों में गैसों का आदान प्रदान

स्थलीय जीव श्वसन के लिये वायुमंडल में उपस्थित ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं। विभिन्न स्थलीय जीवों में यह ऑक्सीजन भिन्न भिन्न अंगों द्वारा अवशोषित की जाती है। परंतु इन सभी अंगों में एक रचना समान होती है, जो उस सतही क्षेत्रफल को बढ़ाती है जो ऑक्सीजन बाहुल्य वायुमंड के संपर्क में रहता है।

चूँकि ऑक्सीजन व कार्बन डाईऑक्साइड का विनिमय इस सतह के आर पार होता है, अत: यह सतह बहुत पतली तथा मुलायम होती है, जिसके कारण इस सतह की रक्षा के उद्देश्य से यह अंग शरीर के अंदर अवस्थित होती है तथा इस क्षेत्र में वायु आने के लिए एक रास्ता होता है। इसके अतिरिक्त जहाँ ऑक्सीजन अवशोषित होती है, उस क्षेत्र में वायु अंदर और बाहर होने के लिये एक क्रियाविधि होती है।

मनुष्यों में श्वसन एवं श्वसन तंत्र

मनुष्य चूँकि स्थलीय जीव है, अत: ये फेफड़े की सहायता से श्वास लेते हैं। मनुष्यों में श्वसन के लिये एक विकसित श्वसन तंत्र (Respiratory System) है। श्वसन तंत्र कई भागों में विभक्त तथा अलग अलग विशेष कार्यों के लिए बना होता है।

मानव श्वसन तंत्र
Fig:2. मानव श्वसन तंत्र 2

श्वसन श्वसनिकाएँ एवं कूपिका
Fig:3. श्वसन श्वसनिकाएँ एवं कूपिका 3

नासिका या नासाद्वार (Nostrils)

मनुष्य में वायु नासाद्वार होकर शरीर के अंदर जाती है। नासादार के ठीक अंदर महीन बाल होते हैं, ये बाल अंदर जाने वाली वायु को निस्पंदित (Filter) कर देती है, जिससे वायु धूल तथा दूसरी अशुद्धियों से मुक्त हो जाती है। इस मार्ग में श्लेष्मा (mucus) की परत भी होती है, जो वायु को धूल तथा अशुद्धियों से रहित करने में सहायक होती है।

श्वासनली (Trachea)

नासाद्वार से वायु कंठ में पहुँचती है, जहाँ से श्वासनली द्वारा फेफड़े अर्थात फुफ्फुस (Lung) में पहुँचती है। श्वासनली में उपास्थि वलय (Rings of Cartilage) बने होते हैं, जो यह सुनिश्चित करता है कि वायु का मार्ग निपतित (Collapse) नहीं हो।

श्वसनी (Bronchi)

श्वासनली आगे चलकर दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है जिसे श्वसनी (Bronchi) कहा जाता है। श्वसनी की एक एक शाखाएँ एक एक फेफड़े में जाती है।

श्वसनिकाएँ (Bronchioles)

श्वसनी आगे जाकर पुन: कई शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं, इस छोटी छोटी शाखाओं को श्वसनिकाएँ (Bronchioles) कहा जाता है।

कूपिका (Alveoli)

श्वसनिकाएँ (Bronchioles) फेफड़े [फुफ्फुस (Lung)] के अंदर पहुँचकर अंत में गुब्बारे जैसी रचना में अंतकृत [बदल या बनाती (terminate)] हैं, ये रचनाएँ कूपिका (Alveoli) कहलाती हैं।

कूपिकाएँ नासाद्वार (Nostril) से आने वाली वायु को एक सतह उपलब्ध कराती है जिससे गैसों का विनिमय हो सकता है। कूपिकाओं की भित्ति में रूधिर वाहिकाओं (Blood vessels) का विस्तीर्ण जाल होता है।

जब हम श्वास लेते हैं तो हमारी पसलियाँ ऊपर उठती हैं और हमारा डायाफ्राम चपटा हो जाता है। परिणामस्वरूप वक्षगुहिका बड़ी हो जाती है। इस कारण वायु फेफड़े के अंदर चूस ली जाती है और विस्तृत कूपिकाओं (Alveoli) को भर लेती है। रूधिर (Blood) शेष शरीर से कार्बन डाईऑक्साइड कूपिकाओं में छोड़ने के लिए लाता है। कूपिकाएँ रूधिर वाहिका का रूधिर कूपिका वायु से ऑक्सीजन लेकर शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाता है।

श्वास चक्र के समय जब वायु अंदर और बाहर होती है, फेफड़ा सदैव वायु का अवशिष्ट आयतन रखते हैं जिससे ऑक्सीजन के अवशोषण (Absorption) तथा कार्बन डाईऑक्साइड के मोचन (Release) के लिये पर्याप्त समय मिल जाता है।

इस तरह श्वसन का चक्र श्वसन तंत्र की मदद से पूरा होता है। यह प्रक्रिया जीवनपर्यंत निरंतर चलती रहती है।

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Reference:

Figure 1, 2 और 3 एनoसीoआरoटीo के पाठ्य पुस्तक के अध्याय:6 जैव प्रक्रम से ली गयी है।